मंगलवार, 8 मार्च 2016

abstract landscape, oil on canvas, 23 × 23



कश्मीर ताबिनाह ताबिनाह कश्मीर

1

दोनों ही नदियाँ
बहती, ठहरती हैं
किन्ही
कजरारी आँखों में
जहाँ
अलसाई
चांदनी, चिनार और किसी के नाम का रौशन
इक चिराग है।

2

बारिश
बादल
बर्फ
भूल जाते
बीत जाते हैं
समय के साथ
लेकिन
उस टूटे पत्ते के पते को
जोड़ना न भूलता
देखो
पतझड़ को बूंद-बूंद
पानी पिलाता है
मेरा ख़ुदा ।

3

हज़रत बल
और
हरी परबत
अक्सर सोचते हैं
साथ-साथ
रचते अपने सपने
सुनते कुछ मंद
ध्वनियाँ
रबाबों की
आँखे बंद कर।

4

पतवार से
बख़ूबी मिटा देती तुम अक्स अपना
पानी, किश्ती सब जानते हैं
पहचानते अपना रहबर
तभी तो लामकां बन
थाम लेते रूहानी उँगलियों के पोर
छुई थी बारिश कभी जिन्होंने
अपनी स्याहयात से निकल
उकेरने फिर से
तुम्हारा अक्स उस पानी पर।

5

बेज़ुबान हो चले
ये बच्चे
दरख़्त
नहरें
शिकारों में भी पसरा है
सन्नाटा
परी महल से लौट गयी
कहानियाँ सारी
बचा नहीं कोई मर्सिया पढ़ने वाला
शिव भी कहीं ओर निकल गए अपने मंदिर छोड़
हमारी जन्नत हुई गहरी हरी, चिनारों में छिपे चीते
सरे राह हवाएँ भी बख़्तरबंद
बेवा बेज़ुबा।


6

केसर की खुशबू
बीत गयी
अब तो
गंध
काहवे में
सुलगते बारूद की।


7

तुम्हारी पलकों जैसा
बादल भी ढक देते पहाड़ों को
भीतर जहाँ ताबीज़ और
हाथ में तक़दीर फेरती
एक तस्बिज है
मैं मनका हूँ
उस देखते जानते मुसाफ़िर
मन का ।

8

शेष रहती हैं
स्मृतियाँ
चित्त में समाये चित्र
कुछ रंग
वृक्ष से जुड़े होने के निशान
और
नयी सुबह की कामना
पतझड़ के बीत जाने पर
कितना कुछ शेष रहता है
हमारे लिए ।

9

अपने मुर्शिद की तलाश में
बदहवास
भटकता था
खड़ा मिला जो मुझे
किसी तस्वीर में
चिनार का पत्ता थामें
झेलम के किनारे।

10

उसकी आँखों से छलके हर आँसू को
कितना बारीकी से सहेजा
ख़ुदा ने,
देता है लाख नासियतें
सिखाता सलिखा जो
चखने का
देकर इक नाम
आब ए जमजम
ज़मी पर उतरे फ़रिश्तो के लिए ।

* ताबिनाह एक कश्मीरी बहन

रविवार, 3 जनवरी 2016

पत्थर

पत्थर होना क्या होता
जानता है 
सहना थाती जो उसकी
बे-ज़ुबान नहीं है वह  
कहनी आती अपनी कथा उसे भी
लगाने आते दर्जनों दशमलव  
सुना सकता बे-परवाह
तुम्हारे-सी कोई कविता, कहानी 
न आलिम न फ़ाज़िल
पीढ़ी दर पीढ़ी
पत्थर है वह
सहना थाती जो उसकी |

पुरानी पीड

अब केवल
पत्थर ही बचे हैं  
पुरानी पीड लिए
सुनहरी धूप में पकते चमकते
पौडियों पर छपे पुरखों के पावों संग,
शायद मुनासिब ही होगा यह कहना कि
सदियों से बंद उस दालान से उठती खंख
का इशारा

कुछ ओर भी कहने को था | 

देखा है

बहते
पिधलते
छिलते
खिलते देखा है,
मैंने
पत्थर को
बूंद-बूंद
झरते

खिरते देखा है |