रविवार, 3 जनवरी 2016

पत्थर

पत्थर होना क्या होता
जानता है 
सहना थाती जो उसकी
बे-ज़ुबान नहीं है वह  
कहनी आती अपनी कथा उसे भी
लगाने आते दर्जनों दशमलव  
सुना सकता बे-परवाह
तुम्हारे-सी कोई कविता, कहानी 
न आलिम न फ़ाज़िल
पीढ़ी दर पीढ़ी
पत्थर है वह
सहना थाती जो उसकी |

पुरानी पीड

अब केवल
पत्थर ही बचे हैं  
पुरानी पीड लिए
सुनहरी धूप में पकते चमकते
पौडियों पर छपे पुरखों के पावों संग,
शायद मुनासिब ही होगा यह कहना कि
सदियों से बंद उस दालान से उठती खंख
का इशारा

कुछ ओर भी कहने को था | 

देखा है

बहते
पिधलते
छिलते
खिलते देखा है,
मैंने
पत्थर को
बूंद-बूंद
झरते

खिरते देखा है |