गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

असमयी अंतरालों को पार करने की ललक


                                          


                                              असमयी अंतरालों को पार करने की ललक




कल्पना और यथार्थ के बीच की यात्रा के सहचर होकर लगातार हम कितनी तेजी से आगे बढ़ते रहते है, जहाँ जिन्दगी की उपस्थिति के प्रमाणिक अंश कहीं पीछे छूटते नज़र आते हैं। जिन विषयों में कभी हमारी दिलचस्पी रहती थी, वे स्वयंसिद्ध अनुबंध आज समय के साथ बदले बदले - से लगते हैं; कुछ भी तो इक सार नहीं रहता यहाँ, उन असमयी अंतरालों को पार करने की ललक में मन ही मन कितना भुनभुनाते हैं, अन्ततोगत्वा थक हार कर सीख ही लेते अपने आपको बाँटना। निरर्थक  नहीं है समय की इन सांकलों से मुक्त होना, कुछ ऐसा सोच पाना जिनसे वाकई हमारे असल सरोकार हों, हमारी देह और रूह से जिन तत्वों का ताल्लुक हो।

बहुत सार है यहाँ होने में, काफी हद तक निरर्थक साबित होता इस दुनिया को मृत्युलोक कहना, वास्तव में सबकुछ हम पर ही तो निर्भर है। मनुष्य का जन्म कोई अनायास घटित हुआ फलसफा नहीं ओर ना ही जीवविज्ञान का कोई वाकिया केवल, प्रयोजनार्थ भी है यहाँ बहुत कुछ , जिसे मन की आध्यात्मिक शब्दावरी के सहारे पाया जा सकता है। बार - बार हमें अपने इस लय के सूत्र सेतु को बनाये रखना होता है जिससे साक्षात् होना कोई नयी बात नहीं है, कालांतर से हम ऐसा ही तो करते आयें हैं, सार्थक करते आयें हैं अपने होने के अर्थ । बारम्बार जहाँ हमने जिन्दगी की इस जंग को जीता है, अनेकानेक तकलीफों के बावजूद भी मनुष्य होने की उत्सवधर्मिता को सिद्ध किया है। इसी देह में समय - समय पर अपने  भीतर के ईश्वरीय तत्त्व की उदघोषणा की है हमने।

लेकिन कितने ही पहलुओं पर एक बहुत बड़े समूह द्वारा इस तथ्य को नाकारा भी जाता है पता नहीं हम किस नए संसार को रचने की बात करते हैं ...सिरे से नकार देते सह - अस्तित्व के उन नियमों को तभी तो शायद जिन्दगी अतार्किक, अरुचिकर और मूल्यहीन लगने लगती है, एक बड़ी आबादी के पास अनुभव व स्मृतियों के स्तर पर सब बाज़ारू सरीखा संचयन होता दिखाई देता है । आज पूरब का चिन्तनशील मनस पश्चिम के वैचारिक दिवालियापन की राह पर है, वैसे भी सबसे कठिन तो आपने आप को जानना होता है, अपने आप से संवाद करना और अपने भीतर देख पाना है जो स्वयं ही घटित होने वाली अध्यात्मिक प्रक्रिया का हिस्सा भर है, धर्म, राजनीति और बाज़ार तीनों ही हमें जिन अनुभवों से लगातार दूर रखना चाहते हैं बहुत दूर ।



सोमवार, 17 दिसंबर 2012

बहा देते उस दरियाव को...


                                                               


                                                                

बहा देते उस दरियाव को...






क्या सब कुछ पूर्वनियोजित होता है यहाँ ? या फिर, किन्ही स्तरों पर हम उनके नियोजन में अपनी भूमिका निभाते हैं, अपने समय की असल तारीखें तय करते हैं। बहती हवाओं पर संवाद के अर्थ कोरकर स्मृतियों की अंतरंग दशाओं के साथ निरंतर तालमेल बिठाने में लगे रहते| किस कदर भीड़ भरे बाजारों में भी उस एकान्तिक पल को तलाश कर ज्ञानित व्योम की परिकल्पना करते नहीं थकते। कुछ भी तो अछूता नहीं रहता
 जहाँ, उन मुमकिन संभावनाओं के साथ निंदा और प्रसंशा दोनों ही सामानांतर अपने - अपने शब्दकोष बढ़ाते हैं। कैसे कोई निष्पक्षता के तत्पर्यों को पाए और स्वार्थ की रीति- नीति के बन्धनों से मुक्त होकर जिन्दगी में उपस्थित चिरंतन आध्यात्म की उस अनंत प्रक्रिया को जाने पहचानें।

कितने सारे पक्ष होते हैं इन मान्यताओं के , सबके अलग - अलग तर्क भी । कभी - कभी वाकई यह दुनिया एक तमाशा मालूम पड़ती है, अनन्य विविधताओं भरा एक खूबसूरत तमाशा। हम सभी कुछ न कुछ तलाशते रहते हैं जहाँ, आधा - अधुरा भी - मानो पूरा सच मालूम पड़ता है। बहुधा अपनी ही बात कहने भर में कितना सारा समय बीत जाता। कितना मुश्किल होता हम तक पहुंचे उन शब्दों को सही सुन पाना। सांकेतिक भाषा में कहे गए वे शब्द ...सिर्फ ओर सिर्फ पलक भर में भविष्य के आकाश को हमारे लिए खोल देते हैं, बहा देते उस दरियाव को जिसमें गोते लगाकर नि:सार संसार का सार सामने आता है| 

हमारे लिए यहाँ बहुत कुछ तय भी होता है जिसका अपना देश और काल है, उसकी गति का नियंता बनना किसी के बस की बात नहीं। इस सिलसिले में कुछ इनसे परे मार्गी भी हैं जो स्थितप्रज्ञ होकर अपनी अनुभूतियों के आधार पर आत्मास्मृति से स्मृति को मिटा डालते हैं। इसीलिए " भगवत गीता " में स्मृतिभ्रंश जैसी संभावनाओं कि ओर भी इशारा है, शायद यही उस मन के संस्कार का मानक भी है जो किसी भी कोष के साथ यात्रा करता हुआ बीज और बीज से देह का रूप धरकर हमारी असल चितवृति का निर्माण करता है। 

अमित कल्ला
 

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

शब्द पहले या रंग


शब्द पहले या रंग

शब्द और रंग दोनों ही मेरे साथ साथ चलते हैं पता नहीं "शब्द पहले या रंग" मानो हम एक दूसरे के पूरक होंहाँ रचता हूँ मैं अपना कल्पना लोकएक ऐसे लोक को रचने की जुम्बिश होती है जहाँ मौन की मात्राएँ भी कुछ कहेअभिलाषित यथार्त के अपूर्ण प्रसंग अर्थ के साथ साथ गहराए पता नहीं कितने अनुभव और सबका अपना अपना आकाशअनंत विस्तृत आकाश | लेकिन कभी लगता है कि इतना आसान नहीं बांधना उस आकाश को क्याआकाश ही अन्तरिक्ष है अन्तरिक्ष हमारे अन्दर तक खीचे आकाश का उत्कर्ष जो या फिर सूर्य-रश्मियों से उत्पन कोई ब्रह्माकार वृति केवल, जाने - अनजाने निरंतर बहता जो ... जागकर भी अजागाऐसे में आँखें तो केवल उस एकान्तिक उपाधि को पाकर अपने होने का अनुमान भर लगाती है कभी कभी जिसके भाग्य में गाढ़ी रात का यात्री होना लिखा होता हैअपने ही पावों पर अपने ही घर मेंजीव और जगत के बीच खड़ा वह यात्री 

मैं  अच्छे से जानता हूँ  कि आशाएं भगाती हैं  पाकर भी जो निरंतर अनुपलब्धसच मानों तो ये सब मायावी बन्धनों का प्रतिबिम्ब ही लगता हैं जिनका पीछा करने में बर्फ - सी बीत जाती है उम्रफिर तो बस सदियों पुराने नीले आकाश में क्षण भर ठहरे पंखों का स्मरण ही होता है | हमारे यहाँ मृत्यु एक उत्सव है नये होने का उत्सव और हर यात्रा उससे कहीं जुडी होती है मैं हर बार जन्मता भी हूँ फूलपत्ती,तितलीबारिशगर्म हवा बनकर फ़ैल जाता हूँ तो कभी सिमटता हूँकहते हैं सब कुछ माटी तो फिर माटी का मोल माटी से क्योंइतना आसान नहीं होता कितने ही लोगों को तो जाते समय समझ आता और कुछ नासमझे ही रह जाते, मुझे लगता है कि उससा होना ही पाना है उसे सब यही तो कहते हैं लेकिन  मृत्यु कुछ नहीं कहती... वह बहुत छोटी जो अभी उस ईश्वर से | 

अगर मैं रेखाओं की बात करूँ तो कहूँगा कि उनकी देह विस्तृत होती है  अनन्य रहस्यों को खोलती - बांधती , जोड़ती -तोड़ती --- समुद् में लहर , धरती पर नदीरेतलम्बीयात्रा हो जाती  स्मृतिया रचती - रचातीजीवन की धुरी  गहराने लगती हैचित्रकार इन्ही रेखाओं को पकड़ खोजता है विलय के अर्थजाग्रत कल्पनाओं को अपने गंतव्य तक पहुचाता है  आख़िर कहाँ से आती ये रेखायें ...कैसे निपजतीकहते हैं बिन्दु -बिन्दु जुड़ बनती है रेखारेखा बनाती है आकृतियाँ और फिर पूर्ण होते हैं प्रयोजन  सतत एकात्म काखेल चलता है मूर्त - अमूर्त का एकात्म  कितनी सुंदर बात है की रेखाओं का जन्म भी रिक्तता से होता है  रिक्त जो पूर्णता का पर्याय ,इसीलिए कभी - कभी इन्हे रिक्त की रेखायें कहते हैं जो अपनी पलकों में गहरी रात के काजल को सहेजकर ख़ुद  ख़ुद सुर्ख सफ़ेद सतहोंके बाहर झाँकती है  वैशाख की तपती दोपहर में पल - पल पके अमलतास के नन्हे निवेदनों को स्वीकार कर कितनी सहजता से उस 'रमते दृग ' के सामने फैला देती अपनी काली कमली | 
...

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

"उलटबाँसी"


ऐसा ही ! मानो, 
हर  रोज़ का अनुभव हो 
असंभव नहीं जहाँ 
इस शिकायती मन को मनना 
कुछ देखना जो 
उसे कहीं ज्यादा भीतर ले जाये 

जानता हूँ 
कितना कठिन होता है 
लम्बी यात्राओं के बाद 
पीछे को लौटना 
हज़ार कायाओं की छापों से मुक्त होकर 
देह का बीज और 
बीज का कोष में समां जाना 

कितना कठिन 
उस सीखे को भुलाना 
सत्य के करीब होने के भय को मिटा देना 
और  कभी 
स्वयं को उंडेलकर 
"उलटबाँसी" हो जाना 

असंभव नहीं 
कठिन जरुर होता है 
संसार में 
पदार्थ और मृत्यु के 
अतिरिक्त भी कुछ देखना ।

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

लौटने का समय



पहचान भर मे
छोड़ जाता है साथ सदियों का 
अब तो उसके पास 
सिर्फ एक 
अपहचाना वाक्य भर बाकी है 
अपने आप में सिमटा 
सुकोमल वाक्य 

हाँ ! 
वह उपनिषद नहीं जानता 
जहाँ सुनने के अर्थ कहने से गहरे होते हैं 
हरी होती हैं मौन की मात्राएँ 
अपनी ही आँखों को देख लेने भर - से 
थम जाता 
अथाह कौलाहल जहाँ 


अब तो सबके लौटने का समय है 
लौटने का अपने ही घर को 
उसी पहचान भर में 
कभी कुछ अपने अंतस में लौटने जैसा भी ।

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

जिनसे रू-ब-रू होना उसकी नियति है



                  जिनसे रू-ब-रू होना उसकी नियति है



नित्य कुछ नया रचने की कोशिश ही किन्ही अर्थों में अपने आप को हर रोज़ तोड़कर फिर से जोड़ने के मायने हैं ...मसलन अपनी कला को साधने की जद्दोज़हद करते हुए सृजन कर्ता के सामने कितनी सारी चुनौतियाँ होती हैं, जो शब्द और रंगों जैसी ही जिन्दगी का एक अहम हिस्सा होकर, समय रहते उसकी बैचेनी को एक सार्थकता देती है । परोक्ष - अपरोक्ष रूप में जिनसे रू-ब-रू होना उसकी नियति है या फिर किसी सोचे समझे चुनाव का हिस्सा ।


जी हाँ इस बात के अपने कई तार्किक पक्ष हैं जिन्हें एक कलाकार या फिर कोई कला-मनोवैज्ञानिक ही ज्यादा बेहतर ढंग से अनुभव कर सकता है।  इस यात्रा में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसका समाज में रहने वालों को सामान्यतया आभास भी नहीं हो पाता । जिन्दगी के रंगमंच पर कितनी ही बार हम उन्हें जन्मते मरते देखते हैं जहाँ उनकी वह उर्जा देह को पार कर असंख्य रूपकों में अभिव्यक्त होती नज़र आती है। किसी विषय वस्तु का अपने आप में होना ही उसे पाना होता है, यह कोई दर्शन के तत्त्वमीमांसा की बात नहीं बल्कि हम मनुष्यों की सामान्य चेतना से कहीं ज्यादा सरोकार रखती बात है, कभी - कभार बहुत से तंत्रों को एक साथ नियोजित करने वाले उस मन के निजान्तर्गत होने वाले सूक्ष्म संवाद की दिव्यता का एक हिस्सा भर।  

संभवत : यहाँ बहुत कुछ हमशक्लीय भी मालूम पड़ता है, इतने बड़े देश में कितने ही किरदार इन रूपकों का फ़ायदा उठाते हैं, यह बात सही भी है कि कितना अंतर होता है " बनने और होने में " लेकिन इनके भावार्थों पर बहुत से सवालिया निशान लगाये जा सकते हैं । जिसके लिए किसी पर भी दोष मंडना सही नहीं होगा । कलाकार होने के अर्थों का पुनार्मुलांकन होना आवश्यक है सही मायनों उस समझ को विकसित करना, जहाँ कहीं ज्यादा जिम्मेदारियों को आगे आकर आत्मसाथ करने के स्वभाव का निर्माण हो न क़ि उनसे पीछा छुड़ाकर पलायन का दामन थामने की प्रवर्ती । दूसरों के प्रति सहिष्णुता और सत्य की निरंतर खोज ही जिसका सबसे बड़ा गुणधर्म है और कला के आध्यात्म की सबसे महत्वपूर्ण कुंजी ।