रविवार, 30 अगस्त 2009

क्या - क्या स्तगित

क्या- क्या
स्तगित करते हो
स्वप्न प्रक्रिया ,
अपने लोक की यात्रा
अथवा
अगले जन्म का इंतजार

बेतुका सा लगता
देता अगर
चुनौती
क्या समझना
क्या समझाना

थोडी - थोडी झलक भी
बहुत नाज़ुक लगती है
होते हुए भी नहीं

तत्क्षण
कितनी अबाध
जगाये जाने पर कहीं
ओर
निरंतर
अप्रभावित ।

समराथल

कितनी विस्तृत
ये रेत

अपनी देह के भार से भर जाती
पत्थर - पत्थर हो जाती
रेखाओं सी दौड़ने लगती है
कंकडों के किलों की
निगरानी कर
हज़ार - हज़ार स्पर्शों को चूम
अक्षांश - देशांतर जोड़ती

कहीं दूर
रात भी जगती है जहाँ
संभल संभलकर
सुनहरे त्रिकोण पर बैठ
फरागत से भरा
समराथल
बनाती

कितनी विस्तृत
ये रेत ।

निर्धारित निर्वासन

स्मृतियों की
खड़खड़ाहटों के पार
बूंद - बूंद
संवित विकल्प

कैसा वह
निर्धारित निर्वासन
स्वप्न से स्वप्न ,
काया से काया ,
भव से भव

एकाएक
मानों
किसी
टूटते तारे का पीछा करती
रेखा की पकड ।

बूढे पंखों का सहारा ले

बूढे पंखों का
सहारा ले
रंग
छिपे पहाडो तक
जा पहुचते

आप ही उत्त्पन
दिलासाओं के संग
सही - सही के
मायनों की दहलीजें
पार कर जाते हैं

हौले से ,
दौड़ते पानी की
रफ्तार माँप
काँच सी पोशाक
भिगो लेते

रंग
मांगे वाक्यों के
प्रतिबिम्बों में समाये
हाशियों को बिखेर ,
धकेलकर क्षितिज की दे

गहरे कोहरे को
मथने
कहीं और
निकल पड़ते ।

रमता दृग

दृग रमता है
रमता ही जाता है
पाता पर्वत
पानी पाताल का चखता
दृग रंग पकड़ता है
रेखाओं की संगत करता

दृग कबीर बन
अन्तरिक्ष के दिगांत विस्तार को
ताने-बाने में बुनता
दृग नानक सा फिरता है
हजारों हज़ार आँखों से देखता
हजारों हज़ार पगों से चलता है

दृग कोयल का काजल
तितली की बिंदिया
पंछी की परछाई
मखमल का जोबन चुराता

दृग शब्द पकड़ता है
इबारतों की इबादत कर
द्रश्य पार कर जाता
दृग रमता है
रमता ही जाता है

कितना भला होता रेगिस्तान

थाम लेती हैं उंगलियाँ
पानी की
रंगों से भरी
गाथाएं

रामभरोसे ही सही
कोरती उड़ते पंख
आसमान के,
बातचीत की बिसातों पर
अक्षरों की बुनाई से
छूटे अजनबी रेशे
मनमानी
सुधि जगाते हैं

आख़िर
कितना भला होता
रेगिस्तान
अपने बिछोने पर
यात्राओं के
रूखे पगों को
नम करता

गहरे - गहरे
साजों की संगत का
अर्ध्य देता है ।

आधे से आधा चुन लेता

आधे
से
आधा
चुन लेता

अपने आप
पानी सा
सब पर प्रकट होता है

चाक चढा समय
उस भूले दृश्य को
गंतव्य की
साझेदारी देता ,
पैने - पैने शब्दों की
विसर्जित मात्राओं
के साथ
अगली कडियाँ जोड़
फिर
दोहराता
तराशने वाला
तिलिस्मी हिसाब ,

अधिकांश
सिर्फ
आभास में
रख देते

कोई
आधे
से
आधा
चुन लेता

अल्लाह की जात - अल्लाह के रंग

इसक
की
कुछ आहट
जरुर लगती है

जिधर देखो
असंख्य दृश्य
अपने सा
अर्थ देते

पढ़पढ़कर
नन्हे निवेदन
केवडे के फूल
उस अपार नूर का
चुग्गा चुग जाते

अकह को कहकर
अगह को गहकर
कैसी कैसी
गनिमते गिनते हैं

दबादबाकर
गहरी रेत में
कितना पकाया जाता
भरी-भरी आँखों के सामने ही
बाहर निकल
पी जाते
अमर बूटी
मीठा महारस

तभी तो
हर इक
चेहरे को
ज्यों की त्यों
अल्लाह की जात
अल्लाह के रंग
का
पता देते हैं

इसक
की
कुछ आहट
जरुर लगती है ।

अधिक देखना हो

अधिक देखना हो
तो

बुरांश के फूल ,
महौषद कच्ची कच्ची इलायची ,
राजतामय
बदल वन देखे,

पहाडी पर लेटी
मावस की रात,
तोपों से चिपकी
अफीम की दोपहर ,
शब्द रहित गीला गीला सा
लीलामय लोक,
विलेखित स्वप्न
और अतृप्त
गर्वीला घुमाव देखे ,

अधिक देखना हो
तो
अंधे समुद्र का
जोगिया रंग देखे ।

यकायक

छलकता
नेत्रों की
गहराई से ,
रिझा रिझा कर
कराता
स्वीकार
हार

तोड़ता
कैसे
न जाने
अंहकार को

वह इक
यकायक ।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

इस छोर से उस छोर तक

इस छोर से उस छोर तक
ए़क महापर्व,
स्वछ्न्दी चरित का
अवभृथ स्नान,
तरु से आधिक सहिष्ण
देह के स्पंदन

कभी - कभी
जहाँ
सोचना भी
होना हो जाता है
ठग लेता
अवनी को अम्बर

समुद्र भी
अपनी स्थिरता
नही रख पाता
लेता स्वांस
अकुलाहट भरी
खण्ड-खण्ड प्रस्तर
उजला-उजला परिधान

कैसा अभिप्राय
कैसी निज कल्पना
काजल सा कोमल
चंदन-चंदन
कमल-कमल

पंख लगा
अलमस्त फकीरा

इस छोर से उस छोर तक ।

हाँ मायावी हूँ

हाँ
मायावी हूँ
नही थकता
वंचित भी नही रहता
ज्योत्सना के साथ
खोज लेता
इन्द्र से अवक्रीत
स्वप्न

आख़िर क्या रिश्ता
बे ख़बर
नगर- नयन का ,
किसी
कथा सा
गोल - गोल
संयोग के पार
केवल ए़क नज़ारा ही
काफी होता है

घटाकाश का प्रखर वेग
अन्तः पुर की व्यकुलता दर्शाता ,
कहाँ
फर्क पड़ता मुझे

अनवरत
बरसती आग में
शाही स्नान कर
फ़िर
नई काया धरता

हाँ
मायावी हूँ
नही थकता

यह सत्य नहीं , वह सत्य नही

यह सत्य नही
वह सत्य नही
कैसा अंतर्निर्हित
संभाव्य भेद

विलंबित से द्रुत तक
अस्थायी स्थिति,
अतीत की दृष्टी में
तन्मात्रों का संयोग,


नैसर्गिक नियमों के पार
ठोस विश्वास सा
शब्द संयोजन ,
आर - पार के
अर्थों
का
संतुलन ,

स्वभाव से मुक्त
लय जहाँ
प्रलय है
नियमों के पार
कैसी मुक्ति के उपाय की चर्चा

भवाय , हराय , मृडाय
संग संग
भवतु भव
शिवाय
शिवतराय ।

बुधवार, 26 अगस्त 2009

क्षण भर में

क्षण भर में
पिघलने लगता
धसता आंखों में
हर लहर के साथ
कही और
चाकू सी चुभती नोंक संग
किन्ही गहराइयों में
खो जाता
ये चाँद कैसा ।

सुलगती रेत में

तपती
सुलगती रेत में
पसरा
शिलालेख
करता तुम्हारी प्रतीक्षा

लिखी
जिस पर
कथा
दिशाओं के
विलाप की ।

रणथम्भौर का राजा

हज़ार
दहलिज़े पार कर
चुनौती दे
आकाशीय मेहराबों को
फ़िर लौट आता है

नदी को चीर देता
पर्वत -पर्वत रौंद
आँखों से आग बरसा
आप ही
बनता -बनता है
धारीदार करता
लुकाछिपी
चौकन्ना
चौकाता कैसा
ये रणथम्भौर का राजा ।

कहाँ

कहाँ
विभाजित क्षितिज
कहाँ
विवर्जित माया
कहाँ
नैना सुरत सयानी
कहाँ
अगम
निगम का खेला
कहाँ

बिसर मुक्तिफल जाता
कहाँ
रेखाओ कई महानिद्रा
कहाँ
रंग संग बसेरा
कहाँ
भर
भर कंचन वर्षा
कहाँ
पानी को पानी से धोना
कहाँ
छाव को छाव से अलग करना
कहाँ
आख़िर एसा मेला ।

करवट - करवट

किसी
औघड़ की
काली कमली ओढ़
अपनी ही देह में
अंतरध्यान हो

पल- पल
कैसा सहारा देती है

मौन
के उस
सुरमई
संतुलन को
करवट - करवट ।

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

कितना साफ़ ..

पिघलते अंधेरे के पार
गहराई चांदी की रेखा पर
टिके ख्वाब में
बची- खुची पीड़ा तक
या फ़िर
खाली कैनवास में
छिपे पहाडो पर
उगी घास ,

अटक जाता
जहाँ
सूर्य
कभी कभी
कितना साफ़ ।

खोजता पीड पुराणी

खोजता
पीड पुराणी,
माथा - पच्ची कर
कोई न कोई
वैकुंठ की यात्रा कर आता है

सिलखड़ी पर कोर देता
मन्त्रयोग ,
पंच से पंच का तात्पर्य ,
सिद्धांतो के संदेहों से पार
बाटकर सुनहरे बीज
दत्तचित्त हो
अंग और अंगी का
भेद बताता है

कौन बडभागी
ब्रह्मज्ञान की बात करता ,
गुदगुदाता
ज्वारभाटों को ,
विरह के बाणों को
नयनों में समा

आकाश पर मेघ
पृथ्वी पर जल
रहँट पर कौतुहल
बिखेर देता

अखंड ध्यान लयलीन
अपने ही साहिब मै
विख्यात होता है
प्रतिषण
कोई न कोई
खोजता है
पीड़ पुराणी ।

सोमवार, 17 अगस्त 2009

कृष्ण और शुक्ल के मध्य

कृष्ण और शुक्ल
के मध्य
सुझाता
श्रुतज्ञान,

कहाँ
मन मछली गंतव्य
कहाँ
अलबेला ऋतुफल

देखो
अर्ध्य चढाते उन देवताओं को,
भौमश्ववीनि योग में
तरने - तारने को तैयार

दिशाएं शिलाओं पर
सुस्ताती
देहमुक्त महाकाव्य की
उपासनाओं से थकी,
समुच्य का विधान दोहराती है

अभिमान मत करना तुम
सिद्धवस्तु,
जमातों की जमात,
नेत्रों में किरणों के पुंज भर
चढ़ते आकाश पर रहना

हज़ार- हज़ार
सागर की आयु वाले
तुम ही स्कन्द
तुम ही इन्द्र
अग्नि , आकाश,
काल ,यम्,
अमृत
तुम ही हुत,
अथर्व , दत्तरूप,

गरजो
गरजो
रुद्र... बन तुम

कृष्ण और शुक्ल के मध्य
जहाँ
सुझाता कोई
इक और
श्रुतज्ञान ।