शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

"हं"

नि:संदेह
स्थायी होता है
देह से अलग
वह बीज
मह:लोक से
सम्बन्ध हो  जिसका
आकांक्षी
चेतन आकाश-लय की
कामना करता है

वह
नीलवर्णी
किसी स्वरयन्त्र-सा
प्रलय पार
नि:संदेह
सहस्रार की
उन खुली
पंखुरिओं तक

"हं"
"हं" 
"हं" 
उचारता

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

एरावत का देश

बुलाती है
अपने होने की
ठसक के साथ
स्पर्श करती किन्ही
किरणों- सी
तार-तार
पार कर जाती है
आगंतुक
धीरे से
मंत्र पढ़ता
चुनना है उसे
एक केवल
बंध मुट्ठी
एरावत का देश
या फिर
पारिजात
शायद इस बार
वह
विफल नहीं .

शुभ यात्रा

उसे भूलने में ही
भलाई है
सिर्फ लिखा जाता जिसे
कभी-कभी
कहा-
फिर क्या दिखाई पड़ता
इक नया दिवस
हाँ
बहुत अंतर है
पृथ्वी सा होने में
हवा
उसका क्या
शुभ यात्राएँ हीं

डर नहीं अब

सतह
से
सतह तक
भारमुक्त
कितनी ऊंचाई पर
टिका रहता है
तपते-तपते
सोखता सरेआम
जन्मान्तरों से
डर नहीं अब
खिर जाने का
कहने को रच लिया
आज उसने
सर्द रात में
चीड़ों पर चढ़ी
चांदनी का
अन्तरिक्ष .

वृक्ष संगीत

इक
अनुष्ठान लुभाता है
लगातार
कुछ सीखने-सीखाने का अर्थ
सजीव होता जहाँ
शायद ही कोई
उन अधखुले
आकारों के साथ
अपने हिस्से के
एकांत को
समुद्र संकल्प सा सींचता होगा
साध-साधकर
शब्दों को
पा लेता होगा
महागनय
वृक्ष संगीत
अब तो
औपचारिक प्रार्थनायें भी
ओझल हो चुकी
सहम गयी
उस अनजाने
पलायन से .

इक 
अनुष्ठान लुभाता है 

कश्मीर के पहाड़

मनमाने
मृत्यु उत्सवों में
भाग लेने से
मोक्ष नहीं मिलता
कश्मीर के पहाड़
ऐसा कहने लगे हैं
अरे !
उन्हें अब पाता चला क्या
बात वहीँ की
बहुत पुरानी है .

बस का नहीं उसके

अब तो
सिद्ध हो चुका
पा लिया वरदान
कहीं भी प्रकट होता है
आज बड़ा है
उसका दुःख
स्वयं
ईश्वर से
वह भी थक चुका
बस का नहीं उसके
ये विलाप