सच ये समय
कैसा भी हो
निकल ही जाता है
कसकता सिसकता
अपनी परछाइयों को पीछे छोड़कर
यादों में बसी स्मृतियों सा
परस्पर
ख़ामोशी में सजते सवंरते
नितांत उस आकाश को
देखते देखते
वज़ह बे - वज़ह बहुत दूर तक
बंद मुट्ठियों से सरकता
उन अलिखित स्वरों के साथ
सुर्ख़ ख्यालों-सा
निकल जाता है बहुत दूर
सच ये समय बहुत कुछ
निगल भी जाता है ।