गुरुवार, 25 जून 2015

पूरा - अधूरा

पूरा - अधूरा 

अधूरे में
चाह होती है
पूरा होने की,
ताउम्र भटकता वह
रंगत पाने को,
बिन जाने ही
उस पूरे पर मुक़र्रर
अधूरे को ।

सच ये समय

सच ये समय

कैसा भी हो
निकल ही जाता है
कसकता सिसकता
अपनी परछाइयों को पीछे छोड़कर
यादों में बसी स्मृतियों सा 
परस्पर
ख़ामोशी में सजते सवंरते
नितांत उस आकाश को
देखते देखते
वज़ह बे - वज़ह बहुत दूर तक
बंद मुट्ठियों से सरकता
उन अलिखित स्वरों के साथ
सुर्ख़ ख्यालों-सा
निकल जाता है बहुत दूर
सच ये समय बहुत कुछ
निगल भी जाता है । 

'हूँ' और 'है'

'हूँ' और 'है'

कितना बड़ा अंतर होता  
'हूँ' और 'है' में 
ठीक तरने - विसरने  सा  
एक में अनिश्चितता का छिपा होना है 
दूसरा यक़ीनन 
दर्शन की 
ठहरी खबर 
गहरी खबर । 


कुछ घटता है

कुछ घटता है

भूलने और याद आने के बीच 
कुछ घटता है 
कितना सहना - सुनना होता है हमें,
अपने स्थायी भावों के अनुरूप 
उसके साथ होने के सूक्ष्मतम सम्बोधन,
बीते हुए लम्हों की लयकारियाँ,
संगेमरमर पर लेटी हई 
पानी की रेखा के सरकने की आवाज़,
और 
आसमानी फ़िज़ाओं को 
मन - ओ - तू कहता 
उनका मुकाम 
भूलने और याद आने के बीच । 

बुधवार, 24 जून 2015

भीतर जब उतरती है

भीतर जब उतरती है

जब भी भीतर उतरती है 
वह लय 
दोनों साथ साथ नहीं रह पाते 
तब तो बस  
कुछ होने का बोध भर बना रहता है 
उन उलझे सवालों के साथ
धुंधलके स्वप्न 
खुद ब ख़ुद ही समा जाते 
अतलतल में, 
पिघल जाते हैं सजावटी मुखौटे 
कोई ग़ौर करे न करे 
हर एक दिन ज्यादा गाढ़ा होता है जहाँ 
हमारी अनघड़ अपेक्षाओं से कहीं गहरा 
गोया कि मौजूदा मुकामों पर  
धरी की धरी रह जाती 
सारी की सारी पद्धतियाँ
असीमित ज्ञान 
और 
प्राप्त संबंधों के अभ्यास । 





सच कहूँ तो

सच कहूँ तो

आखिर 
डूबकर ही माना वह 
डूबना चाह जो थी,
खार होकर भी 
धधकता रहा उन गहराइयों में, 
दमकता रहा कैनवास पर चटक रंगों - सा 
न ख्याली न महज़  
एकदम खालिस, 
कहते हैं गुनहगार था 
कविता कही थी उसने 
बचाकर अपने कुछ बीज 
बसा दी खुदा के दर पर असंख्य बस्तियां 
कदाचित डूबना उसका, गुज़रना था 
हमारा पार जाना 
सच कहूँ तो ठहरना केवल ।

मंगलवार, 23 जून 2015

वे कुछ भी नहीं बोले

वे कुछ भी नहीं बोले

वे कुछ भी नहीं बोले 
बस देखते रहे 
जैसे मछली देखती है 
सोचते रहे अतल गहरायी में 
उस कछुए जैसा 
मैं विवशताओं भरा 
अधर में 
अपना ही नाम बोलता रहा 
टटोलता रहा । 

जानता है वह

जानता है वह

जानता है वह 
सब कुछ 
तभी तो उसने बे - परवाह 
परवानों जैसा 
आँखों देखा 
घूंट - सा पिया 
समंदर - सा भीगा 
और माटी - सा सूखा है 
जानता है वह कि असल तो 
न जानी गयी कतरा भर ख़ामोशी है 
बरसों बरस की घुप अँधेरी रात बाद 
उजाले सा गुजरता 
जानता है वह । 



तुम्हारे भीतर

तुम्हारे भीतर 

तुम्हारे भीतर 
उन रंगों को सवरते देखा है उसने 
तभी तो भरमाया - सा रहता है 
आँखों को मूंद भी लिया चखकर 
कुछ कल कल सुनाई भी देता है 
जानता वह दर - असल 
रूबरू कहना जो चाहता 
उमड़ते घुमड़ते 
इस जहान -ए अंत से पहले ।  

लौट - लौटकर आता

लौट - लौटकर आता

लौट - लौटकर आता 
बादल, धुआं, बारिश बनकर  
खोलता है तुम्हारे लिए अपनी निजता 
पिसता, फटता, धुनता, बरस जाता है 
उन छोटी छोटी - सी 
मुलाकातों के लिए 
बटोरने 
बिखरी उन 
सारी की सारी प्रार्थनाओं के लिए । 

सोमवार, 22 जून 2015

प्रेम में

प्रेम में

नदी सिर्फ और सिर्फ 
प्रेम पाने को बहती है 
जैसे फूल खिर जाने को 
बादल बरसने को 
रेत ठहरने को 
ये खिरना, बरसना, ठहरना भी 
बहना है नदी-सा 
प्रेम में । 

लम्बे अंतरलाल

लम्बे अंतरलाल 

लम्बे अंतरलाल 
कितने सुखदायी होते 
गुमे हुए को खोजकर 
हम दोनों ही 
परस्पर 
अपनी अपनी हथेलियाँ खोलते हैं 
भरी भरी आँखों के साथ 
लकीरों वाली 
खाली हथेलियाँ । 

भीतर और बाहर


भीतर और बाहर 

भीतर और बाहर 
एक सा चलता जाता 
एक सा बढ़ता है 
सुनाई भी देता 
तुम्हारे करीब होने पर 
साफ़ दीखता भी है 
कचनार की कली सा फूटने लगता 
जल बनकर बहने लगता है 
भीतर और बाहर । 

परिधियों के पार

परिधियों के पार

परिधियों के पार 
उसने प्यास को पाया है 
लम्बी छलांगों से पहले ही 
खींच जो लिया उसने 
तत्पर गर्भ के एकांत को ।

उम्र कैद

उम्र कैद

उसकी मुस्कराहट का कतरा कतरा 
चुरा लेता मुझे 
भूल जाता हूँ मैं अपने होने को 
स्वीकारता उम्र कैद 
उन पलकों की पनाह में ।