शनिवार, 9 नवंबर 2013

स्याह को सफेद में

लगातार 
जोड़ने घटाने के सहारे प्रतिष्टित 
बंद खुली हज़ारों वर्षों से 
किन्ही परतों में दबी तरकीबें 
कल्पनाओं को बेहतर 
छवियाँ प्रदान करती हैं 
तथाकथित 
आवरणों को अस्वीकार करके 
स्वयं का स्वयं से 
परिचय करा 
सुखमय अज्ञानता के 
स्याह को सफेद में तब्दील करती है 
लगातार 
जोड़ने घटाने के सहारे ही। 

आत्मबोध

अनगिनत चुनौतियों के बावजूद 
उनका आत्मसंतोष ही 
लाता है उन्हें 
उस भूले हुए यथार्थ के नज़दीक 
निगूढार्थ 
अपने ही आत्मबोध कि संगती के खाकों में 
सुई कि नॉक सा जो 
निर्धारित है। 

दिक्काल

निश्चित ही था 
देखना
छूते हुए पूर्वज्ञान कि 
सांकेतिक सीमाओं को,
संकीर्ण दायरों में 
सीमित होना जहाँ 
दिक्काल के स्वप्न का विचार भर था। 

समनुगत विन्यास 

बहुत से अभिप्राय हैं  
उनके होने के 
और न होना भी 
उसका ही 
समनुगत विन्यास 

निरंतरता जहाँ 
प्रतिक है उन स्पृश्य बिम्बों कि 
पुरातन परिचित प्रतिक।


दीवारों पर चिपकाये 
इश्तिहारों जैसे 
मैले कुचैले होकर उखड जाना 
जहाँ नियति है 
शेष 
अपने भूलने कि फ़िक्र में 
चुन चुनकर सुख और दुःख 
आकारों के अर्थों को पक्का करते हैं। 

कब तक बचाएगा वह उसे 
कब तक लिए फिरेगा उस नए बीज को 
कब तक उचित रीति कि बाट जोयेगा 
कब तक छायाओं कि उपस्थिति के प्रतिरूप रचेगा 
कब तक इन अटकलबाजियों में समानता के मार्ग पर खड़ा रहेगा।

पेंटिंग : खुली आँखों से देखा गया सपना...




पेंटिंग : खुली आँखों से देखा गया सपना ...

पेंटिग्स कई स्तरों पर संवाद करती है, वह अपने परिकर को बखूभी रच सतरंगी रंगों की उर्जा से पकाती है उसे। हर रोज़ जब भी मैं उसके सामने  होता हूँ तब-तब मुझसे कितना कुछ कहती है,  रेखाएं अपने बन्धनों को खोलकर कितनी सहजता से आँखों की गहराइयों में उतरती, चकमक में छिपी उस आग - सी सीधे अपने आप को साबित करती मालूम पड़ती है। बहुत कुछ तय भी तो होता जहाँ " होने न होने के परे " के सच जैसा कुछ ।

जी हाँ ! आपाधापी के ये गणित और व्याकरण ज्यों की त्यों धरे रह जाते हैं, कितने बे-बुनियादी मालूम पड़ते सारे, ऐसे में उसका आकाश तो तय ही होता है, समर्थ है वह ओर क्यों न हो अनन्य भव की सम्पूर्णता जो है उसमे । अधूरे तो हम मनुष्य ही ...आधे अधूरे। सच ही तो है कि हमारे अपने भी बहुत से अबूझे सवाल होते हैं, जिनके उत्तर ये दीवारें देती हैं।  हम क्यों नहीं देख पाते  कैनवास पर उकेरे गए उस बिंदु के आगे, कितना कुछ होता है जिसके पीछे; होती उन अजन्मी विस्थापित दिशाओं  की कहानियाँ जिनका सीधा - सीधा ताल्लुक हम से है, खुली आँखों से देखे गए हमारे उन सपनों से हैं । 

उन्होंने कहा


उन्होंने कहा 
अब आगे नहीं जाना 
पिछले को जुटाने में भूलजाना, 
उन्होंने कहा 
बहते हुए समय को 
याद करना फिर मिटा देना 
रेखाओं से परिचय मत बढ़ाना, 
उन्होंने कहा 
आदमी जैसे बनना 
ईश्वर से होकर 
ना हो जाना, 
उन्होंने कहा 
कभी आने दो आने 
स्व्यं के समक्ष भी जाना 
पहचानना और पकडलेना।