गुरुवार, 29 नवंबर 2012

रंग भिगोकर तराते हमें


रंग भिगोकर तराते हमें 


कला के माध्यम से हम अपने आप को अभिव्यक्त करते हैं, कितना मुश्किल होता है वहाँ कुछ छुपा पाना, सत्य किसी न किसी रूप में बहार आता ही है ।  कई - कई स्तरों पर अपने होने के समय से संवाद करती हमारी अवचेतन दिव्य मौलिकता, असामान्य मुखरता से कितना कुछ कहती है यक़ीनन उन छूटे हुए  अक्षरों को आकारों में पिरोकर प्रतीकात्मक बिम्बों के सहारे समूचे कैनवास पर बिखर जाती है । 

सीधे तौर पर हम कुछ धुंधला - सा आभास भर कर पाते हैं लेकिन यह बात तय है कि उन आभासों के मतले बड़े गहरे होते हैं । जी हाँ बहुत मुश्किल होता रंगों को लगाकर कुरेदना, परतें जहाँ एक दूसरे से सटकर बिछी होती हैं, ऐसा लगता, मानो समुद्र की लहरें अनायास ही बिना अपनी तासीर को बदले रेत बन गयी हो, लहर तो लहर ही ... बहना फितरत में जो उसकी, हर बार मर-मिटकर नया जन्म पाना, नयी देह के साथ यात्रा करना , सच जहाँ टूटकर फिर से नया बनने की कहानी लगातार चलती है। 

साहिब हम तो सिर्फ अनुमान भर लगाते हैं, उन स्वप्नों को चरखी में समेटने सरीखा कोमल अनुभव तो किसी और के ही  हिस्से में जाता है। रंग रेखाओं के सहारे खड़े होकर अपनी छायाँ को पाकर हजारों हज़ार आँखों में धुंध की मार्फ़त घुलने लगते। वाकई किनारे ऋणी हैं, ऋणी हैं वे सारे, किनारे बनकर घुलने तक किये गए उस सफ़र के, उन लहरों के, और उन खामोश रंगों के जो आजीवन उसी फलक की चुनिन्दा पायदानों पर चढ़े अपनी चमकीली रौशन आँखों से हमेशा की तरह भिगोकर तराते हैं हमे।

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

बनाकर उनकी


अप्राप्त को प्राप्त करने 
और 
इनकी - उनकी 
मानने के बीच ही कहीं 
किसी लालसा में 
बहुत कुछ 
ख्याली ही रहता यहाँ 
जी हाँ 
पदार्थ बनते  " हम " बेचारे 
बनाकर उनकी 
सड़कें 
संसद 
सरकारें ।

शनिवार, 24 नवंबर 2012

मनुष्य की सर्वोच्तम अवस्थाओं के नज़दीक

इस चुनने - चुनाने के दरमियाँ कितना कुछ होता है, वास्तव में दोनों ही धारणाओं के अपने अपने दृष्टीकोण हैं ...मनुष्य की तार्किकता के साथ - साथ कला की परिभाषाओं पर भी कितना विचार मंथन होता रहा है । उसके विभिन्न रूपाकारों की समाज में अभिव्यक्तियाँ होती आयी हैं । जिसका मूल खोजने के लिए मानवशास्त्र विज्ञानं का सहारा लेकर सदियों पीछे की मानव विकास यात्रा को बड़ी बारीकी से देखना होगा । समय के साथ हमने कैसे पहले अपने आप को जिन्दा रखने की जरूरतों को पूरा किया और फिर मन में उठते विचारों को कलात्मक सृजन कर पोषित । चाहे कोई भी कला हो वह हमारी अभिव्यक्ति का सबसे नायाब माध्यम मानी गयी है और अभिव्यक्ति हमारी देह का स्वतंत्र स्वभाव है । वह हमारे उस अंतरतम निज की सबसे प्रमाणिक आवश्यकता है जिसे आज के इस आधुनिक समय में हम कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में तलाशते रहते हैं । कई बार उसमे छिपी रचना प्रक्रिया की मौलिकता और कभी उसकी प्रासंगिकता पर सवाल किये जाते हैं जिनका हमेशा बना रहना आवश्यक नहीं है क्योंकि इसे जानने समझने का पैमाना बहुत विस्तृत है इसके बहुपक्ष हैं, हम जितना अपने आप को खोलेंगे उतने अधिक उससे नजदीकी बना पाएंगे और वह एक लम्बी यात्रा से ही संभव है । परत दर परत जिसे समझा और पाया जा सके --- वस्तु, परिस्थितिऔर संबंधों को ज्यों कि त्यों स्वीकार करने की क्षमता भी उसका एक महत्वपूर्ण गुण है, जो  धीरे धीरे किसी भी साधारण मनुष्य को उसकी सर्वोच्तम अवस्थाओं के नज़दीक लाकर खड़ा कर देती है ।

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

कुछ होता ऐसा


क्या सब कुछ निजी होता है,
कुछ होता ऐसा भी
जो सब का हो
हवा सबके लिए होती है, 
कुदरत का पानी, रौशनी सूरज की, गहरी रात के तारे 
सुख और दुःख 
कितना अच्छा होता 
अगर खेत सब के होते,  अनाज़ से रोटी और मिलता हर हाथ को काम 
गाँव के चरागाह और पुरखों के ज्ञान - सा सबका
सवेरा  
होती है जैसे सबकी 
शामलात 
दुनिया शामलात होती तो 
क्या होता 
नहीं होता बहुत कुछ 
निश्चित ही इतिहास नहीं
इतिहास तो कभी नहीं |

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

कुछ सयाने लोग

गाँव में
बच्चों को खेलने के मैदान 
पेड़ों को फैलने के लिए आसमान
पशुओं को चरने का  चरागाह 
मछली को गहरा पानी  
महिलाओं को इंधन और
शौचालय 
बुजुर्गों को ऐनक चाहिए 
कहते हैं कि
ये नये समय की नई बात है 
क्या कभी आप ने गाँव देखा है 
कुछ सयाने लोग 
सिविल लाइन से 
उन्हें देखते और नापते भी हैं |

बुधवार, 21 नवंबर 2012

पार - अपार

बहते हैं रंग 
दिशाएं भी 
बहती हैं, 
स्मृतियाँ 
बूंद -बूंद 
उन्ही - सी
किन्ही अल्पविरामों के
नितांत,
पार - अपार ।

कौन बड़ा ?

गाँव के 
बच्चे कहते हैं 
कौन बड़ा ?
पटवारी या पेड़ 
तहसीलदार या फिर सदियों की तहज़ीब 
कलेक्टर या कृषक
मैं कहता
निश्चित ही
मन बच्चों का ज्यादा बड़ा है
पेड़, पवन, पानी - जैसा ही
क्योंकि
छोटा जो है इन सब का
अहंकार !

वे लोग

वे लोग 
मालिक नहीं बनते कभी 
आज भी नहीं 

वे लोग 
बांटते हैं सुख, सौंदर्य असीम
पाटते हैं शहरों की भूख
बहुत सारे" नहीं " के बावजूद भी
वे लोग
जानते हैं अर्थ
शामलात के

वे लोग
विकास से नहीं डरते
डरते हैं
उसके छिपे
भावार्थों से |

शायद विश्वास ही यह... विस्मय नहीं, इल्यूजन कदापि नहीं

  



शायद विश्वास ही यह... विस्मय नहीं,  इल्यूजन कदापि नहीं 

अंतर है दोनों में आजीवन,  एक का आधार विश्वास और दूसरा टिका है विस्मय पर, हमारी संस्कृति में विस्मित करना कदापि कला का प्रयोजन या गुणधर्म नहीं रहा ... कभी कभी अप्रत्याशित रूप - से ऐसा संभव जरूर होता है । यहाँ हर एक कलाकार को अपनी लम्बी यात्रा करनी होती है । सहजमार्ग पर होने वाली देश - काल से भी लम्बी यात्रा, सदियों के बीत जाने पर भी लगता है मानो पल भर का छोटा - सा फासला हो, शून्य के साथ की गई किसी संगत जैसा ही कुछ, सृष्टी के लम्बे आलाप जैसा अटूट स्थायी अनुभव जो मन को आकाश रस बनकर भिगोता है । सपनों के साथ अनुभव और स्मृतियां आपस में मिलकर बड़ा गहरा संवाद रचते हैं जिससे कल्पना और यथार्थ के बीच की रेखा साफ - साफ दिखने लगती है ।" मनुष्य कला को चुनता है या फिर कला मनुष्य को " पहले भी कई बार यह प्रश्न मन में आता रहा है जिस पर एकाएक कुछ भी कहना सही नहीं होगा इसे  जानने समझने के लिए मौन मन के भीतर झांकना जरुरी है । विस्मय को रचते अंग्रेजी के इल्यूजन ( illusion ) सरीखे कुछ शब्दों का तर्कसंगत मनोवैज्ञानिक अर्थ पाना भी अत्यंत आवश्यक है ।

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

कौन बड़ा ?

गाँव के 
बच्चे कहते हैं 
कौन बड़ा ?
पटवारी या पेड़ 
तहसीलदार या फिर सदियों की तहज़ीब 
कलेक्टर या कृषक 
मैं कहता
निश्चित ही
मन बच्चों का ज्यादा बड़ा है
पेड़, पवन, पानी - जैसा ही
क्योंकि
छोटा जो है इन सब का
अहंकार !

अपने होने की सार्थकता



जिन्दगी में अक्सर बहते रहना होता है, कितने सारे रस्ते जो खुद ब खुद चलाते हमे, किसी न किसी तय मुकाम तक पंहुचा ही देते हैं ; जी हाँ कहीं - कहीं वह नियति भी काम करती है जिसका सम्बन्ध हमारे सूक्ष्म मन और उसकी स्मृतियों से बहुत ही गहरा होता है यहाँ कई जन्मों की छायाओं के बिम्ब अनुभव किये जा सकते हैं । कैसे किसी एक मनुष्य का मन और उसका स्वभाव दूसरे से अलग बनता है सच मनोविज्ञानी इसे ज्यादा बेहतर समझते हैं और यह जानते हैं की मनोविज्ञान का भी कुछ मनोविज्ञान होता है । कभी - कभी जिसके गणितीय आंकड़े अविश्वसनीय - से लगते और उनकी  उपस्थिति निरर्थक साबित होती है । सदियों से हम जीवन के रहस्यों के बारे में सोचते आयें है स्वप्न और वास्तविकता के अंतरसंबंधों को टटोलना हमारा रुचिकर विषय रहा है, हर दिन किसी नई जिज्ञासा के सहयात्री होकर हम अपने होने की सार्थकता को पाने की कोशिश करते हैं, देह और उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर ताउम्र  बड़ी गंभीरता से सोचते - विचारते लेकिन अंततोगत्वा ज्यादातर लोगों को खाली हाथ लौटना पड़ता है । यह कतई मज़हबी बात नहीं है, इसके तार कहीं न कहीं मनुष्य की नैसर्गिक आध्यात्मिकता से गुथे हैं, एक बहुत बड़े तंत्र से इसका सीधा - सीधा सरोकार है। 

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

भली - भली सी इक रात

अधूरे की
अपनी ही धुरी होती है
होता है उसका आकाश भी 
अधुरा स्वयं को निगलता  
निपजता उस पूरे को 
जहाँ स्मृतियों की आकृतियाँ है 
सिरहाने से फिसलकर 
सुबह को लपकती
भली - भली सी इक 
रात है ।

शब्द बीज - सा

ढेरों  कविताएँ है
उसके पास
सूरज की बिखेरी कवितायेँ
कल समेट कर ले जायेगी
पूर्वया जिसे
हर जन्म में
बस यूँही
ऊँचा बना रहे
यह आकाश
और मैं
फसल - सा
पकता रहूँ
कटता रहूँ
शब्द बीज - सा
बूँद - बूँद
बिखरता रहूँ ।