गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

जोग जुगत परे

जोग जुगत परे
बातों ही बातों में
कुछ
अगम- अगाध
कुछ
अमाप- अजुणी
कुछ
चौदह लोको में
चवर डुलता है
बिन धरती
बिन बादल
बिन जल
गर्म हवओं का
अनुयायी हो जाता

रटीये नही रटता
काल की चौकी तक ,
कुछ
मुग्ध हो
रेशम
रजनी को
वैराग्य के उस
शतांश की
कथा सुनाता है
जोग जुगत परे
बातों ही बातों में ।

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

कथाओं की कथाएँ

कथाओं की कथाएँ

संभावित
कथाओं की कथाएँ
टीस की
उस टपक को
संकेत करती

जहाँ
दिशाएं
समय -असमय
अवस्थाओं की अंगीठी पर
उस नियामक सत्य संग
स्वयं को पकाती है

भीतर ही भीतर
समूचा सा लगने लगता
आप ही सहमत हो
अन्तरस्थ ध्वनि का
अकल्पित वाक्य
अपने होने की
जिद करता है

कथाओं की कथाएँ
अवबोधित
मौन का
संकेत कर
सशरीर ही उसे
अमृत्य का
वरदान देती है।

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

रिक्त की रेखायें

रिक्त की रेखायें

रिक्त की रेखायें
गहरी रात के काजल को
अपनी पलकों में सहेजकर
खुद ब खुद
सूर्ख़ सफ़ेद सतहों के बाहर झांकती है,

करवट करवट
मौन के अनन्य संतुलन के सहारे
अचरज की अटकलों में डूबे पहाड़ पर
कौंधती बिजलियों सी आ धमक
वैशाख की तपती दोपहर में
गर्म हवाओं का
यमनराग सुनती है ,
अपने पंखो को
बादलों की ओट में
पसार,
मल -मल कर नागकेसर,
आप ही उत्तपन दिलासाओं
के संग संग
पहचाने रास्ते पकड़ लेती ।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

वैसे ही जैसे

वैसे ही जैसे
शब्द
आँच में पककर
सौ सौ फल फलता,
वैसे ही जैसे
कोई स्वतंत्र एकांत
टूटी समाधि के पार
स्वर संग
धवलतर विस्वसनीय लगता,
वैसे ही जैसे
इक छोटा सा स्वप्न
पतली डोरियों से
ऊँची लहरें बांधता,
गुनगुनाता,
सुनाने लगता ईश्वर की बात,
वैसे ही जैसे
खो जाता कोई
रोशनाई की
रूहानी
रेखाओं में ।

मन ही मन

मन ही मन
लाल त्रिभुज
होने की अटकले लगाता
पहाड़,
कही
दूर निकल जाता
हवा
हामी भर
बिन लहराएँ चली जाती,


पहाड़
फलसफों के पुलिंदे ढोए
अचरज से देखता
वह
गुलमोहर को अपना पंख,
अपना काजल,
दे जाती

पहाड़
बादल की ओठ खोजता
लेकिन
हवा
उसे
कुलधरा ले जाती है

पहाड़
अब अटकले नहीं लगाता
सचमुच
पहाड़ बने रहेने की
धुनी
रमाता है ।

अपनी ही देह में

करवट करवट
किसी
औघड़ की
काली कमली
ओढ़ लेती,

अपनी ही
देह में
अंतरध्यान हो
पल पल
कैसा
सहारा देती,

मौन के
उस
सुरमई
संतुलन को