बुधवार, 15 अप्रैल 2009

मन ही मन

मन ही मन
लाल त्रिभुज
होने की अटकले लगाता
पहाड़,
कही
दूर निकल जाता
हवा
हामी भर
बिन लहराएँ चली जाती,


पहाड़
फलसफों के पुलिंदे ढोए
अचरज से देखता
वह
गुलमोहर को अपना पंख,
अपना काजल,
दे जाती

पहाड़
बादल की ओठ खोजता
लेकिन
हवा
उसे
कुलधरा ले जाती है

पहाड़
अब अटकले नहीं लगाता
सचमुच
पहाड़ बने रहेने की
धुनी
रमाता है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें