मन ही मन
लाल त्रिभुज
होने की अटकले लगाता
पहाड़,
कही
दूर निकल जाता
हवा
हामी भर
बिन लहराएँ चली जाती,
पहाड़
फलसफों के पुलिंदे ढोए
अचरज से देखता
वह
गुलमोहर को अपना पंख,
अपना काजल,
दे जाती
पहाड़
बादल की ओठ खोजता
लेकिन
हवा
उसे
कुलधरा ले जाती है
पहाड़
अब अटकले नहीं लगाता
सचमुच
पहाड़ बने रहेने की
धुनी
रमाता है ।
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
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