सोमवार, 20 अप्रैल 2009

रिक्त की रेखायें

रिक्त की रेखायें

रिक्त की रेखायें
गहरी रात के काजल को
अपनी पलकों में सहेजकर
खुद ब खुद
सूर्ख़ सफ़ेद सतहों के बाहर झांकती है,

करवट करवट
मौन के अनन्य संतुलन के सहारे
अचरज की अटकलों में डूबे पहाड़ पर
कौंधती बिजलियों सी आ धमक
वैशाख की तपती दोपहर में
गर्म हवाओं का
यमनराग सुनती है ,
अपने पंखो को
बादलों की ओट में
पसार,
मल -मल कर नागकेसर,
आप ही उत्तपन दिलासाओं
के संग संग
पहचाने रास्ते पकड़ लेती ।

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