कितना कुछ है यहाँ
अपना कहने - सा
होता जो
प्राप्त - प्राप्तव्य
कितना कुछ
ज्ञात - ज्ञातव्य भी
फिर भी हम
वही उल्टा पाठ करते हैं
हमेशा की तरह
बाकी ना रहने की चाह में
अंश - अंश उसके होने पर भी सशंकित
करने, होने और
यहाँ - वहाँ की मानने के
बीच ह़ी कहीं
उसी अप्राप्त को प्राप्त करने की
लालसा में आलिप्त
खयाली परिस्थिति के
पदार्थ बनते " हम " बेचारे
कितना कुछ है यहाँ |
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