शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

"हं"

नि:संदेह
स्थायी होता है
देह से अलग
वह बीज
मह:लोक से
सम्बन्ध हो  जिसका
आकांक्षी
चेतन आकाश-लय की
कामना करता है

वह
नीलवर्णी
किसी स्वरयन्त्र-सा
प्रलय पार
नि:संदेह
सहस्रार की
उन खुली
पंखुरिओं तक

"हं"
"हं" 
"हं" 
उचारता

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