AMIT KALLA
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
सुना जो था
कल
सुना जो था
तुमने
पेड़ और उसके
दोस्तों का संवाद
बातों ही बातों में मैंने
तुम्हे
अचानक
एक गिलहरी ने
लपकर
मेज़ की खुली दराज़ से
पेंसिल चुरा-ली |
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ऊँची घास में
डर
स्पर्धा नहीं
ठंडी कविता
तुम्ही बताओ
"नदी" नहीं देखी
लौट आये सब
मृत्यु
कुछ भूलकर
स्थिर
एक दर्शन के लिए
ये गंगा है |
"गंगा" उसकी तो जय हो |
दूसरा कारागृह
सुना जो था
पुन: सोचो
ऋतुएँ नहीं
ग ह ना
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