मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

लौटने का समय



पहचान भर मे
छोड़ जाता है साथ सदियों का 
अब तो उसके पास 
सिर्फ एक 
अपहचाना वाक्य भर बाकी है 
अपने आप में सिमटा 
सुकोमल वाक्य 

हाँ ! 
वह उपनिषद नहीं जानता 
जहाँ सुनने के अर्थ कहने से गहरे होते हैं 
हरी होती हैं मौन की मात्राएँ 
अपनी ही आँखों को देख लेने भर - से 
थम जाता 
अथाह कौलाहल जहाँ 


अब तो सबके लौटने का समय है 
लौटने का अपने ही घर को 
उसी पहचान भर में 
कभी कुछ अपने अंतस में लौटने जैसा भी ।

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