पहचान भर मे
छोड़ जाता है साथ सदियों का
अब तो उसके पास
सिर्फ एक
अपहचाना वाक्य भर बाकी है
अपने आप में सिमटा
सुकोमल वाक्य
हाँ !
वह उपनिषद नहीं जानता
जहाँ सुनने के अर्थ कहने से गहरे होते हैं
हरी होती हैं मौन की मात्राएँ
अपनी ही आँखों को देख लेने भर - से
थम जाता
अथाह कौलाहल जहाँ
अब तो सबके लौटने का समय है
लौटने का अपने ही घर को
उसी पहचान भर में
कभी कुछ अपने अंतस में लौटने जैसा भी ।
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