शब्द पहले या रंग
शब्द और रंग दोनों ही मेरे साथ साथ चलते हैं पता नहीं "शब्द पहले या रंग" मानो हम एक दूसरे के पूरक हों, हाँ रचता हूँ मैं अपना कल्पना लोक, एक ऐसे लोक को रचने की जुम्बिश होती है जहाँ मौन की मात्राएँ भी कुछ कहे, अभिलाषित यथार्त के अपूर्ण प्रसंग अर्थ के साथ साथ गहराए पता नहीं कितने अनुभव और सबका अपना अपना आकाश, अनंत विस्तृत आकाश | लेकिन कभी लगता है कि इतना आसान नहीं बांधना उस आकाश को क्या- आकाश ही अन्तरिक्ष है अन्तरिक्ष हमारे अन्दर तक खीचे आकाश का उत्कर्ष जो या फिर सूर्य-रश्मियों से उत्पन कोई ब्रह्माकार वृति केवल, जाने - अनजाने निरंतर बहता जो ... जागकर भी अजागा; ऐसे में आँखें तो केवल उस एकान्तिक उपाधि को पाकर अपने होने का अनुमान भर लगाती है कभी कभी जिसके भाग्य में गाढ़ी रात का यात्री होना लिखा होता है, अपने ही पावों पर अपने ही घर में, जीव और जगत के बीच खड़ा वह यात्री ।
मैं अच्छे से जानता हूँ कि आशाएं भगाती हैं पाकर भी जो निरंतर अनुपलब्ध, सच मानों तो ये सब मायावी बन्धनों का प्रतिबिम्ब ही लगता हैं जिनका पीछा करने में बर्फ - सी बीत जाती है उम्र; फिर तो बस सदियों पुराने नीले आकाश में क्षण भर ठहरे पंखों का स्मरण ही होता है | हमारे यहाँ मृत्यु एक उत्सव है नये होने का उत्सव और हर यात्रा उससे कहीं जुडी होती है मैं हर बार जन्मता भी हूँ फूल, पत्ती,तितली, बारिश, गर्म हवा बनकर फ़ैल जाता हूँ तो कभी सिमटता हूँ, कहते हैं सब कुछ माटी तो फिर माटी का मोल माटी से क्यों, इतना आसान नहीं होता कितने ही लोगों को तो जाते समय समझ आता और कुछ नासमझे ही रह जाते, मुझे लगता है कि उससा होना ही पाना है उसे सब यही तो कहते हैं लेकिन मृत्यु कुछ नहीं कहती... वह बहुत छोटी जो अभी उस ईश्वर से |
अगर मैं रेखाओं की बात करूँ तो कहूँगा कि उनकी देह विस्तृत होती है । अनन्य रहस्यों को खोलती - बां धती , जोड़ती -तोड़ती --- समुद् र में लहर , धरती पर नदी, रेत, लम्बीयात्रा हो जाती । स्मृतिया ं रचती - रचाती, जीवन की धुरी ह ो गहराने लगती है, चित्रकार इन् ही रेखाओं को पकड़ खोजता है विलय के अर्थ, जाग्रत कल्पनाओं को अपने गंतव्य तक पहुचाता है । आख़िर कहाँ से आती ये रेखायें ...कैसे निपजती, कहते हैं बिन्दु -बिन्दु जुड़ बनती है रेखा, रेखा बनाती है आकृतियाँ और फिर पूर्ण होते हैं प्रयोजन । सतत एकात्म काखेल चलता है मूर्त - अमूर्त का एकात्म । कितनी सुंदर बात है की रेखाओं का जन्म भी रिक्तता से होता है रिक्त जो पूर्णता का पर्याय ,इसीलिए कभी - कभी इन्हे रिक्त की रेखायें कहते हैं जो अपनी पलकों में गहरी रात के काजल को सहेजकर ख़ुद ब ख़ुद सुर्ख सफ़ेद सतहोंके बाहर झाँकती है । वैशाख की तपती दोपहर में पल - पल पके अमलतास के नन्हे निवेदनों को स्वीकार कर कितनी सहजता से उस 'रमते दृग ' के सामने फैला देती अपनी काली कमली |
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Bhai Amit ji pahle rang shyad dimag ki nason men pahle rang ubharta hai jisse shabd manas ke patal par ubharte hain. Rang bhav hai shabd abhivyakti. Shyayaad...........?
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