जिनसे रू-ब-रू होना उसकी नियति है
नित्य कुछ नया रचने की कोशिश ही किन्ही अर्थों में अपने आप को हर रोज़ तोड़कर फिर से जोड़ने के मायने हैं ...मसलन अपनी कला को साधने की जद्दोज़हद करते हुए सृजन कर्ता के सामने कितनी सारी चुनौतियाँ होती हैं, जो शब्द और रंगों जैसी ही जिन्दगी का एक अहम हिस्सा होकर, समय रहते उसकी बैचेनी को एक सार्थकता देती है । परोक्ष - अपरोक्ष रूप में जिनसे रू-ब-रू होना उसकी नियति है या फिर किसी सोचे समझे चुनाव का हिस्सा ।
जी हाँ इस बात के अपने कई तार्किक पक्ष हैं जिन्हें एक कलाकार या फिर कोई कला-मनोवैज्ञानिक ही ज्यादा बेहतर ढंग से अनुभव कर सकता है। इस यात्रा में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसका समाज में रहने वालों को सामान्यतया आभास भी नहीं हो पाता । जिन्दगी के रंगमंच पर कितनी ही बार हम उन्हें जन्मते मरते देखते हैं जहाँ उनकी वह उर्जा देह को पार कर असंख्य रूपकों में अभिव्यक्त होती नज़र आती है। किसी विषय वस्तु का अपने आप में होना ही उसे पाना होता है, यह कोई दर्शन के तत्त्वमीमांसा की बात नहीं बल्कि हम मनुष्यों की सामान्य चेतना से कहीं ज्यादा सरोकार रखती बात है, कभी - कभार बहुत से तंत्रों को एक साथ नियोजित करने वाले उस मन के निजान्तर्गत होने वाले सूक्ष्म संवाद की दिव्यता का एक हिस्सा भर।
संभवत : यहाँ बहुत कुछ हमशक्लीय भी मालूम पड़ता है, इतने बड़े देश में कितने ही किरदार इन रूपकों का फ़ायदा उठाते हैं, यह बात सही भी है कि कितना अंतर होता है " बनने और होने में " लेकिन इनके भावार्थों पर बहुत से सवालिया निशान लगाये जा सकते हैं । जिसके लिए किसी पर भी दोष मंडना सही नहीं होगा । कलाकार होने के अर्थों का पुनार्मुलांकन होना आवश्यक है सही मायनों उस समझ को विकसित करना, जहाँ कहीं ज्यादा जिम्मेदारियों को आगे आकर आत्मसाथ करने के स्वभाव का निर्माण हो न क़ि उनसे पीछा छुड़ाकर पलायन का दामन थामने की प्रवर्ती । दूसरों के प्रति सहिष्णुता और सत्य की निरंतर खोज ही जिसका सबसे बड़ा गुणधर्म है और कला के आध्यात्म की सबसे महत्वपूर्ण कुंजी ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंदो दिनों से नेट नहीं चल रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। आज नेट की स्पीड ठीक आ गई और रविवार के लिए चर्चा भी शैड्यूल हो गई।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (2-12-2012) के चर्चा मंच-1060 (प्रथा की व्यथा) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!