बहा देते उस दरियाव को...
क्या सब कुछ पूर्वनियोजित होता है यहाँ ? या फिर, किन्ही स्तरों पर हम उनके नियोजन में अपनी भूमिका निभाते हैं, अपने समय की असल तारीखें तय करते हैं। बहती हवाओं पर संवाद के अर्थ कोरकर स्मृतियों की अंतरंग दशाओं के साथ निरंतर तालमेल बिठाने में लगे रहते| किस कदर भीड़ भरे बाजारों में भी उस एकान्तिक पल को तलाश कर ज्ञानित व्योम की परिकल्पना करते नहीं थकते। कुछ भी तो अछूता नहीं रहता
जहाँ, उन मुमकिन संभावनाओं के साथ निंदा और प्रसंशा दोनों ही सामानांतर अपने - अपने शब्दकोष बढ़ाते हैं। कैसे कोई निष्पक्षता के तत्पर्यों को पाए और स्वार्थ की रीति- नीति के बन्धनों से मुक्त होकर जिन्दगी में उपस्थित चिरंतन आध्यात्म की उस अनंत प्रक्रिया को जाने पहचानें।
कितने सारे पक्ष होते हैं इन मान्यताओं के , सबके अलग - अलग तर्क भी । कभी - कभी वाकई यह दुनिया एक तमाशा मालूम पड़ती है, अनन्य विविधताओं भरा एक खूबसूरत तमाशा। हम सभी कुछ न कुछ तलाशते रहते हैं जहाँ, आधा - अधुरा भी - मानो पूरा सच मालूम पड़ता है। बहुधा अपनी ही बात कहने भर में कितना सारा समय बीत जाता। कितना मुश्किल होता हम तक पहुंचे उन शब्दों को सही सुन पाना। सांकेतिक भाषा में कहे गए वे शब्द ...सिर्फ ओर सिर्फ पलक भर में भविष्य के आकाश को हमारे लिए खोल देते हैं, बहा देते उस दरियाव को जिसमें गोते लगाकर नि:सार संसार का सार सामने आता है|
हमारे लिए यहाँ बहुत कुछ तय भी होता है जिसका अपना देश और काल है, उसकी गति का नियंता बनना किसी के बस की बात नहीं। इस सिलसिले में कुछ इनसे परे मार्गी भी हैं जो स्थितप्रज्ञ होकर अपनी अनुभूतियों के आधार पर आत्मास्मृति से स्मृति को मिटा डालते हैं। इसीलिए " भगवत गीता " में स्मृतिभ्रंश जैसी संभावनाओं कि ओर भी इशारा है, शायद यही उस मन के संस्कार का मानक भी है जो किसी भी कोष के साथ यात्रा करता हुआ बीज और बीज से देह का रूप धरकर हमारी असल चितवृति का निर्माण करता है।
अमित कल्ला
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