पेंटिंग : खुली आँखों से देखा गया सपना ...
पेंटिग्स कई स्तरों पर संवाद करती है, वह अपने परिकर को बखूभी रच सतरंगी रंगों की उर्जा से पकाती है उसे। हर रोज़ जब भी मैं उसके सामने होता हूँ तब-तब मुझसे कितना कुछ कहती है, रेखाएं अपने बन्धनों को खोलकर कितनी सहजता से आँखों की गहराइयों में उतरती, चकमक में छिपी उस आग - सी सीधे अपने आप को साबित करती मालूम पड़ती है। बहुत कुछ तय भी तो होता जहाँ " होने न होने के परे " के सच जैसा कुछ ।
जी हाँ ! आपाधापी के ये गणित और व्याकरण ज्यों की त्यों धरे रह जाते हैं, कितने बे-बुनियादी मालूम पड़ते सारे, ऐसे में उसका आकाश तो तय ही होता है, समर्थ है वह ओर क्यों न हो अनन्य भव की सम्पूर्णता जो है उसमे । अधूरे तो हम मनुष्य ही ...आधे अधूरे। सच ही तो है कि हमारे अपने भी बहुत से अबूझे सवाल होते हैं, जिनके उत्तर ये दीवारें देती हैं। हम क्यों नहीं देख पाते कैनवास पर उकेरे गए उस बिंदु के आगे, कितना कुछ होता है जिसके पीछे; होती उन अजन्मी विस्थापित दिशाओं की कहानियाँ जिनका सीधा - सीधा ताल्लुक हम से है, खुली आँखों से देखे गए हमारे उन सपनों से हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें