दीवारों पर चिपकाये
इश्तिहारों जैसे
मैले कुचैले होकर उखड जाना
जहाँ नियति है
शेष
अपने भूलने कि फ़िक्र में
चुन चुनकर सुख और दुःख
आकारों के अर्थों को पक्का करते हैं।
कब तक बचाएगा वह उसे
कब तक लिए फिरेगा उस नए बीज को
कब तक उचित रीति कि बाट जोयेगा
कब तक छायाओं कि उपस्थिति के प्रतिरूप रचेगा
कब तक इन अटकलबाजियों में समानता के मार्ग पर खड़ा रहेगा।
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