AMIT KALLA
सोमवार, 22 जून 2015
भीतर और बाहर
भीतर और बाहर
भीतर और बाहर
एक सा चलता जाता
एक सा बढ़ता है
सुनाई भी देता
तुम्हारे करीब होने पर
साफ़ दीखता भी है
कचनार की कली सा फूटने लगता
जल बनकर बहने लगता है
भीतर और बाहर ।
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पूरा - अधूरा
सच ये समय
'हूँ' और 'है'
कुछ घटता है
भीतर जब उतरती है
सच कहूँ तो
वे कुछ भी नहीं बोले
जानता है वह
तुम्हारे भीतर
लौट - लौटकर आता
प्रेम में
लम्बे अंतरलाल
भीतर और बाहर
परिधियों के पार
उम्र कैद
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