गुरुवार, 25 जून 2015

सच ये समय

सच ये समय

कैसा भी हो
निकल ही जाता है
कसकता सिसकता
अपनी परछाइयों को पीछे छोड़कर
यादों में बसी स्मृतियों सा 
परस्पर
ख़ामोशी में सजते सवंरते
नितांत उस आकाश को
देखते देखते
वज़ह बे - वज़ह बहुत दूर तक
बंद मुट्ठियों से सरकता
उन अलिखित स्वरों के साथ
सुर्ख़ ख्यालों-सा
निकल जाता है बहुत दूर
सच ये समय बहुत कुछ
निगल भी जाता है । 

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