बुधवार, 24 जून 2015

भीतर जब उतरती है

भीतर जब उतरती है

जब भी भीतर उतरती है 
वह लय 
दोनों साथ साथ नहीं रह पाते 
तब तो बस  
कुछ होने का बोध भर बना रहता है 
उन उलझे सवालों के साथ
धुंधलके स्वप्न 
खुद ब ख़ुद ही समा जाते 
अतलतल में, 
पिघल जाते हैं सजावटी मुखौटे 
कोई ग़ौर करे न करे 
हर एक दिन ज्यादा गाढ़ा होता है जहाँ 
हमारी अनघड़ अपेक्षाओं से कहीं गहरा 
गोया कि मौजूदा मुकामों पर  
धरी की धरी रह जाती 
सारी की सारी पद्धतियाँ
असीमित ज्ञान 
और 
प्राप्त संबंधों के अभ्यास । 





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें