भीतर जब उतरती है
जब भी भीतर उतरती है
वह लय
दोनों साथ साथ नहीं रह पाते
तब तो बस
कुछ होने का बोध भर बना रहता है
उन उलझे सवालों के साथ
धुंधलके स्वप्न
खुद ब ख़ुद ही समा जाते
अतलतल में,
पिघल जाते हैं सजावटी मुखौटे
कोई ग़ौर करे न करे
हर एक दिन ज्यादा गाढ़ा होता है जहाँ
हमारी अनघड़ अपेक्षाओं से कहीं गहरा
गोया कि मौजूदा मुकामों पर
धरी की धरी रह जाती
सारी की सारी पद्धतियाँ
असीमित ज्ञान
और
प्राप्त संबंधों के अभ्यास ।
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