तुम्हारी उपस्थिति
कितने ही रहस्यों के
उदघाटन की बात करती है
अपनी ही
पूर्वापेक्षाओं के
विस्तार का दिव्य
अनुवाद भी
जहाँ बाकी
कुछ नहीं रहता
सब कुछ उसी लय में,
निश्चय ही
धीरे - धीरे
खत्म हो जाते हैं
सारे अंतर
विपरीत भाव
टूटती तन्द्राओं के साथ
उस आध
निर्विकल्प
समाधी में रूपान्तरित
तुम अपनी पूर्णता में
और
मैं अपने "मैं" से मुक्त
यह
वह
तुम और मैं
अब कहाँ के प्रश्न
सब कुछ भूलकर
उस में ही डूबने के गुर
अक्सर
जहाँ मौन भी
किसी आवर्तित
बुलबुले सा हँसता है
जो उसके मैं और तुम में
कभी
कहीं नहीं था ।
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