बुधवार, 21 नवंबर 2012

शायद विश्वास ही यह... विस्मय नहीं, इल्यूजन कदापि नहीं

  



शायद विश्वास ही यह... विस्मय नहीं,  इल्यूजन कदापि नहीं 

अंतर है दोनों में आजीवन,  एक का आधार विश्वास और दूसरा टिका है विस्मय पर, हमारी संस्कृति में विस्मित करना कदापि कला का प्रयोजन या गुणधर्म नहीं रहा ... कभी कभी अप्रत्याशित रूप - से ऐसा संभव जरूर होता है । यहाँ हर एक कलाकार को अपनी लम्बी यात्रा करनी होती है । सहजमार्ग पर होने वाली देश - काल से भी लम्बी यात्रा, सदियों के बीत जाने पर भी लगता है मानो पल भर का छोटा - सा फासला हो, शून्य के साथ की गई किसी संगत जैसा ही कुछ, सृष्टी के लम्बे आलाप जैसा अटूट स्थायी अनुभव जो मन को आकाश रस बनकर भिगोता है । सपनों के साथ अनुभव और स्मृतियां आपस में मिलकर बड़ा गहरा संवाद रचते हैं जिससे कल्पना और यथार्थ के बीच की रेखा साफ - साफ दिखने लगती है ।" मनुष्य कला को चुनता है या फिर कला मनुष्य को " पहले भी कई बार यह प्रश्न मन में आता रहा है जिस पर एकाएक कुछ भी कहना सही नहीं होगा इसे  जानने समझने के लिए मौन मन के भीतर झांकना जरुरी है । विस्मय को रचते अंग्रेजी के इल्यूजन ( illusion ) सरीखे कुछ शब्दों का तर्कसंगत मनोवैज्ञानिक अर्थ पाना भी अत्यंत आवश्यक है ।

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