शनिवार, 24 नवंबर 2012

मनुष्य की सर्वोच्तम अवस्थाओं के नज़दीक

इस चुनने - चुनाने के दरमियाँ कितना कुछ होता है, वास्तव में दोनों ही धारणाओं के अपने अपने दृष्टीकोण हैं ...मनुष्य की तार्किकता के साथ - साथ कला की परिभाषाओं पर भी कितना विचार मंथन होता रहा है । उसके विभिन्न रूपाकारों की समाज में अभिव्यक्तियाँ होती आयी हैं । जिसका मूल खोजने के लिए मानवशास्त्र विज्ञानं का सहारा लेकर सदियों पीछे की मानव विकास यात्रा को बड़ी बारीकी से देखना होगा । समय के साथ हमने कैसे पहले अपने आप को जिन्दा रखने की जरूरतों को पूरा किया और फिर मन में उठते विचारों को कलात्मक सृजन कर पोषित । चाहे कोई भी कला हो वह हमारी अभिव्यक्ति का सबसे नायाब माध्यम मानी गयी है और अभिव्यक्ति हमारी देह का स्वतंत्र स्वभाव है । वह हमारे उस अंतरतम निज की सबसे प्रमाणिक आवश्यकता है जिसे आज के इस आधुनिक समय में हम कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में तलाशते रहते हैं । कई बार उसमे छिपी रचना प्रक्रिया की मौलिकता और कभी उसकी प्रासंगिकता पर सवाल किये जाते हैं जिनका हमेशा बना रहना आवश्यक नहीं है क्योंकि इसे जानने समझने का पैमाना बहुत विस्तृत है इसके बहुपक्ष हैं, हम जितना अपने आप को खोलेंगे उतने अधिक उससे नजदीकी बना पाएंगे और वह एक लम्बी यात्रा से ही संभव है । परत दर परत जिसे समझा और पाया जा सके --- वस्तु, परिस्थितिऔर संबंधों को ज्यों कि त्यों स्वीकार करने की क्षमता भी उसका एक महत्वपूर्ण गुण है, जो  धीरे धीरे किसी भी साधारण मनुष्य को उसकी सर्वोच्तम अवस्थाओं के नज़दीक लाकर खड़ा कर देती है ।

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