मंगलवार, 20 नवंबर 2012

अपने होने की सार्थकता



जिन्दगी में अक्सर बहते रहना होता है, कितने सारे रस्ते जो खुद ब खुद चलाते हमे, किसी न किसी तय मुकाम तक पंहुचा ही देते हैं ; जी हाँ कहीं - कहीं वह नियति भी काम करती है जिसका सम्बन्ध हमारे सूक्ष्म मन और उसकी स्मृतियों से बहुत ही गहरा होता है यहाँ कई जन्मों की छायाओं के बिम्ब अनुभव किये जा सकते हैं । कैसे किसी एक मनुष्य का मन और उसका स्वभाव दूसरे से अलग बनता है सच मनोविज्ञानी इसे ज्यादा बेहतर समझते हैं और यह जानते हैं की मनोविज्ञान का भी कुछ मनोविज्ञान होता है । कभी - कभी जिसके गणितीय आंकड़े अविश्वसनीय - से लगते और उनकी  उपस्थिति निरर्थक साबित होती है । सदियों से हम जीवन के रहस्यों के बारे में सोचते आयें है स्वप्न और वास्तविकता के अंतरसंबंधों को टटोलना हमारा रुचिकर विषय रहा है, हर दिन किसी नई जिज्ञासा के सहयात्री होकर हम अपने होने की सार्थकता को पाने की कोशिश करते हैं, देह और उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर ताउम्र  बड़ी गंभीरता से सोचते - विचारते लेकिन अंततोगत्वा ज्यादातर लोगों को खाली हाथ लौटना पड़ता है । यह कतई मज़हबी बात नहीं है, इसके तार कहीं न कहीं मनुष्य की नैसर्गिक आध्यात्मिकता से गुथे हैं, एक बहुत बड़े तंत्र से इसका सीधा - सीधा सरोकार है। 

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