AMIT KALLA
बुधवार, 1 जून 2011
ठगने दो उन्हें
बहुत सीधा
चल-चल के
कहने - सा
ठगने दो उन्हें
कृतार्थ हैं दोनों
जानते
उस आवशयक
विश्वाश से
की कौन
ठगा गया
अपने-अपने
सुख त्यागकर
उन अंतिम
संकेतों से पूर्व
ठीक ही तो है
ठगा जाना
कोई बुरी बात नहीं |
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आकाश ही अन्तरिक्ष है
छूती नहीं उसे
धूप से पहले
तुमने अभी किया ही क्या है
असहकार
माटी से माटी
यूँ ही
ज्ञानवृद आषाढ
मग्न शालिग्राम में
समुद्र गोलाकार क्यों ?
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एक सवाल
कुछ रंग धूप में
अमृत बीज
ठगने दो उन्हें
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