AMIT KALLA
शनिवार, 11 जून 2011
यूँ ही
ले जाएगा
वहाँ तक
जहाँ मिथ्या
लगने लगती
उपाधियाँ सारी
किसी भारमुक्त
पंछी की तरह
उन संख्याओं को
पीछे हटाकर
क्या
तैयार हो तुम
अपने देवता बदलने को
या फिर
बाँधोगे सीमाओं में
बोध की उस
अनावश्यक यथार्थ को
यूँ ही |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
नई पोस्ट
पुरानी पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Agreegators
मेरे बारे में
Amit Kalla
मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें
फ़ॉलोअर
ब्लॉग आर्काइव
►
2017
(1)
►
मई
(1)
►
2016
(5)
►
मार्च
(2)
►
जनवरी
(3)
►
2015
(19)
►
दिसंबर
(1)
►
जुलाई
(3)
►
जून
(15)
►
2014
(15)
►
दिसंबर
(1)
►
सितंबर
(1)
►
जुलाई
(10)
►
जून
(2)
►
मार्च
(1)
►
2013
(9)
►
नवंबर
(7)
►
जनवरी
(2)
►
2012
(50)
►
दिसंबर
(6)
►
नवंबर
(13)
►
जुलाई
(2)
►
जून
(5)
►
मार्च
(10)
►
फ़रवरी
(13)
►
जनवरी
(1)
▼
2011
(87)
►
सितंबर
(4)
►
अगस्त
(2)
►
जुलाई
(6)
▼
जून
(15)
आकाश ही अन्तरिक्ष है
छूती नहीं उसे
धूप से पहले
तुमने अभी किया ही क्या है
असहकार
माटी से माटी
यूँ ही
ज्ञानवृद आषाढ
मग्न शालिग्राम में
समुद्र गोलाकार क्यों ?
तीन काल का झूठ
एक सवाल
कुछ रंग धूप में
अमृत बीज
ठगने दो उन्हें
►
मई
(19)
►
अप्रैल
(18)
►
मार्च
(10)
►
फ़रवरी
(6)
►
जनवरी
(7)
►
2010
(4)
►
नवंबर
(4)
►
2009
(126)
►
नवंबर
(4)
►
अक्तूबर
(20)
►
सितंबर
(71)
►
अगस्त
(21)
►
जून
(1)
►
मई
(1)
►
अप्रैल
(8)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें