रविवार, 30 अगस्त 2009

कितना भला होता रेगिस्तान

थाम लेती हैं उंगलियाँ
पानी की
रंगों से भरी
गाथाएं

रामभरोसे ही सही
कोरती उड़ते पंख
आसमान के,
बातचीत की बिसातों पर
अक्षरों की बुनाई से
छूटे अजनबी रेशे
मनमानी
सुधि जगाते हैं

आख़िर
कितना भला होता
रेगिस्तान
अपने बिछोने पर
यात्राओं के
रूखे पगों को
नम करता

गहरे - गहरे
साजों की संगत का
अर्ध्य देता है ।

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