इस छोर से उस छोर तक
ए़क महापर्व,
स्वछ्न्दी चरित का
अवभृथ स्नान,
तरु से आधिक सहिष्ण
देह के स्पंदन
कभी - कभी
जहाँ
सोचना भी
होना हो जाता है
ठग लेता
अवनी को अम्बर
समुद्र भी
अपनी स्थिरता
नही रख पाता
लेता स्वांस
अकुलाहट भरी
खण्ड-खण्ड प्रस्तर
उजला-उजला परिधान
कैसा अभिप्राय
कैसी निज कल्पना
काजल सा कोमल
चंदन-चंदन
कमल-कमल
पंख लगा
अलमस्त फकीरा
इस छोर से उस छोर तक ।
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choron ke madhya aaswast karti ye panktiya ek nirgun vishwas ka naya janm si lagti hai. bhai amit, janha sochna swanyam hona ho jata hai wanha to hum maha thagni jaisi is kaya ko kya abhipraya sompe...
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