हाँ
मायावी हूँ
नही थकता
वंचित भी नही रहता
ज्योत्सना के साथ
खोज लेता
इन्द्र से अवक्रीत
स्वप्न
आख़िर क्या रिश्ता
बे ख़बर
नगर- नयन का ,
किसी
कथा सा
गोल - गोल
संयोग के पार
केवल ए़क नज़ारा ही
काफी होता है
घटाकाश का प्रखर वेग
अन्तः पुर की व्यकुलता दर्शाता ,
कहाँ
फर्क पड़ता मुझे
अनवरत
बरसती आग में
शाही स्नान कर
फ़िर
नई काया धरता
हाँ
मायावी हूँ
नही थकता
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
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bahut sunder...han tum mayavi ho mat thakna...aise hi likhte rehna :)
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