AMIT KALLA
शनिवार, 30 अप्रैल 2011
ऊँची घास में
पहाड़ भी
चाहते
कुटिया में रहना
इर्षा उनकी
बादलों से
अधिक ठण्ड होने पर
घुस जाते जो
ऊँची घास में |
डर
सिर्फ
आभास नहीं
निश्चित हूँ कि
वह
डरता है
अंतिम समय तक
ध्यान है उसका
दूसरों कि बातों पर
आश्चर्य
वह अब तक नहीं समझा
डर दूसरों से ही
लगता है |
स्पर्धा नहीं
स्पर्धा नहीं
अपने होने-सा
सजग स्पर्ष है
कविता में
झुककर
किसी दुस्साहस जैसा
स्वीकार किया गया हो जिसे
अब चुनाव
सिर्फ और सिर्फ
तुम पर निर्भर है
बाकी तो
आधा-अधूरा
स्तब्धता के
सौन्दर्य से परे |
ठंडी कविता
कितना जानो
अपने आप को
जितना की
लोग जानते
फिर भी नहीं
बोलते
वंहीं राह
चलते कविता
जानती भी
बोलती भी है
शायद कोयल
कविता ही
गर्म दोपहर में
ठंडी कविता |
शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011
तुम्ही बताओ
ध्यान रहे
सीखने में
कुछ खो ना जाए
वह भी
पराधीन होने का मार्ग ही
जन्मो-जन्मो से
अकाम होकर
अपने ह्रदय को
मन की वस्तुओं से
भरते रहना
आखिर कब तक
बूंद-बूंद
जोड़ना है
और
कुछ सीखना
किसके लिए
तुम्ही बताओ |
"नदी" नहीं देखी
आखिर
जान ही लिया
भविष्य
देखकर
टूटा-फूटा
आकाश
"नदी"
नहीं देखी
उन्होंने
बखूबी
नापती जो पूरा
शहर
एक चुप्पी साधे
बटवारे की |
लौट आये सब
लौट आये सब
सिवाय उन
तितलियों के
बैठ गयी जो
चट्टानों पर
छोटे-से
अवधूत संग
चंपा के
फूलों को
खिलने |
रविवार, 24 अप्रैल 2011
मृत्यु
कहते हैं
मृत्यु बुलाती है
लेकिन
जब मृत्यु को
कोई बुलाये तब
क्या ?
आएगी वह
छोड़कर अपना
घर-बार
बिन मोल-भाव किये
अनिर्वचनीय भाव से
कोई पुकारे- तब
ईश्वर जरूर
चले आयेंगे
अपेक्षाकृत सरल जो
मृत्यु से |
कुछ भूलकर
संभव है
जान पाना
सह-अस्तित्व के
सूक्ष्म नियमों को
जहाँ
तुम अज्ञात को
ज्ञात पाते हो
उतार-चढ़ावों से भरी
एक-एक गाँठ
उतने ही भाव दृश्य
दिखाती
जितनी पंखुड़ियाँ
सहस्त्रार,
कुछ भूलकर
जिसे महाकारण में
उतरना
और अधिक
संभव है |
गुरुवार, 21 अप्रैल 2011
स्थिर
बहता पानी
स्थिर
अद्वेत में स्थित
मैं
भिक्षा मांगकर भी
अहंकारी |
एक दर्शन के लिए
अडिग हैं
बिना किसी शर्त
दूर कोहरे में
नहाये
पंक्तिबद्ध
मन्दाकिनी के
दूसरी ओर
हरे-पीले बासों के
झुरमुट
बिना अनुयायियों के
रखते जो जीवित
अपने आप को
हमेशा की तरह
जमी बर्फ के पिघलने तक
एक दर्शन के लिए |
ये गंगा है |
बहाकर
ले जाती
मेरी परछाईं को
क्यों
भूल जाता हूँ
ये गंगा है |
"गंगा" उसकी तो जय हो |
खुला है
विकल्प
अंतिम अभी
हिमालय की
तीर्थयात्राओं का
"गंगा"
उसकी तो
जय हो |
शनिवार, 9 अप्रैल 2011
दूसरा कारागृह
सबकी
चाहना होना भी
दूसरा कारागृह है
अपेक्षाकृत
अधिक बोझल
उम्र का क्या अर्थ
जन्म से ही
प्रतिदिन जो
अपनी असल
सरलता को खोने तक
किन्ही
कथाकथित आदर्शो को
सहारा बनाकर
नाम की अंतहीन
कतारों में |
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
सुना जो था
कल
सुना जो था
तुमने
पेड़ और उसके
दोस्तों का संवाद
बातों ही बातों में मैंने
तुम्हे
अचानक
एक गिलहरी ने
लपकर
मेज़ की खुली दराज़ से
पेंसिल चुरा-ली |
पुन: सोचो
पुन: सोचो
कि
सोचना सच हो
किसी
पावन स्थल - सा
यूँ मानो
पुरुरावास की
पृथ्वी
उर्वशी का
स्वर्ग
और हमारे लिए
पुरातन
भू-वैकुंठ
पुन: सोचो |
ऋतुएँ नहीं
उनके
कहने में
मत आना
सूरज भी
भटक गया था
अपने रास्ते से
एक बार
वे मृगतृष्णए हैं
ऋतुएँ नहीं-
अपनी ही रचना के
बंधन को जो
सहर्ष करे
स्वीकार |
बुधवार, 6 अप्रैल 2011
ग ह ना
वह जानता है
कैसे सुना जाये
अब तक जिसे
कहा न गया हो
फिर भी
व्याकुलता में
बार-बार भूल जाता
कि उसे
कहने से ज्यादा
सुनना आता है
अब उसके लिए
कहना कुछ नहीं
सिर्फ और सिर्फ
सुनना ही
ग ह ना
भर है|
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