बुधवार, 18 नवंबर 2009

निसर्ग ही मेरे लिए...

वह 
देखती है 
चाँद को 
चाँद 
कहीं अधिक 
रौशन हो जाता 
रिक्त में रंग सजाता है 
सफ़ेद अब 
सफ़ेद नहीं रह पाता 
उसकी उफ़ से 
दामन में स्याह भर
आकाश को 
गहराता है 
अनायास 
वह कहने लगती है    
निसर्ग ही मेरे लिए अब 
स्वर्ग है 

दाता बंदी छोड़ -2

दीखती
बंदगी है
बंदी नहीं दीखते
वे तो
पहुँच चुके
अपने मुकाम तक
थामकर हाथ
सिरजनहारे का    

दाता बंदी छोड़ -1

सूर्य कुण्ड पर
पहरा देते
गालव महाराज
पूछते हैं परिचय
हर रात
मिहिर भोज की
प्रतीक्षा में
वह सुगंध
तेली मंदिर के
चक्कर लगाती है
शिखर का आमलक
आकाश उल्कायें थामता
ठहरा देता
गोपाचल
घन मेघों को
अब तक जो
बंधे थे
पहुच से बहुत दूर
छू लेते  हैं आज
बावन कलियों के छोर
इक निरंकार निर्गुणी
नाम ले  
दाता बंदी छोड़

सोमवार, 16 नवंबर 2009

निर्झर अक्षर

निर्झर
अक्षर
अनजानी
देह भिगो देते हैं ,
रोम - रोम फूटते
किन्ही
बिरवों से
बन - बनकर
दाता के
सबद निरंतर