बुधवार, 7 मार्च 2012

गलकटिया " मन "

हम आशा करते हैं कि
वे बदलें
देखते - देखते
पूरी कि पूरी
दुनिया ही बदल जाती है
ऋतुएं ,
काया - माया ,
सारा का सारा भूगोल , गणित
और हमारा
गलकटिया " मन "
वैसा का वैसा ही
न जीता
न मरता
बदलाव तो बहुत
दूर कि बात ।

तभी तो

देखो
ये रेत भी 
पानी - सी
अपने प्रतिबिम्बों पर
इतराती है
एकाएक
अहंकार को कुचलकर
थाम लेती है हाथ
तभी तो
बादल झरते हैं
और
उठती है वह पत्ती
छूने को अपना आकाश ।

एक सूत्र

एक सूत्र है
उसके पास
मन की कतली से काता
शब्द सूत्र
मैं सुन पाता हूँ
अनुवादों से कहीं बेहतर
उसके स्वर
अपार जल सरीखे स्वर
थिर हो जाता
उसका सजग भागीदार बन
निश्चेष्ट ही
वह
परछाइयों - सा
कोमल सूत्र । 

रंग आदमियत का

कितनी
शिद्दत से खोज निकला
उसने वह रंग
आदमियत का
और बांध लिया
अपनी पोटली में
खुरच - खुरचकर ।

वृक्ष है वह

वह तो
वृक्ष है
विश्वास का वृक्ष
कुछ कहता
सहेजता
वृक्ष ही है वह
अंग - अंग द्विप्त
सत्ताइस नक्षत्रों वाला
हे ! पृथ्वी
तुम्हारे संयम का
वृक्ष है वह ।

" अंत " फिर से दुहराता

इस तरह
धीरे - धीरे
किसी न किसी बहाने हम
अंत तक पहुच ही जाते हैं
" अंत "
फिर से दुहराता
वही रास्ता
हम हाँफते - भागते
बिन बरसे बादल - से
" नौ परकास " के आकाश को
गा -  गाकर
आप ही आप से
कितनी दूर निकल जाते हैं
कुछ नहीं बचता फिर कहने को
धीमा होने और
आजीवन बहुत सा
मौन ! पीने के ।

मंगलवार, 6 मार्च 2012

किन्ही सवालों परे

किन्ही
सवालों पर
कभी न लौटने की
चुप्पियाँ भरता है
और समय
ठीक उसके विपरीत
नदी - सा
जाने - अनजाने
निरंतर बहता
भीतर ही भीतर
प्रवेश करता है
कहाँ
नाव
निकासी ,
गंध  ,
स्पर्श
जागकर भी अजागा
किन्ही सवालों से परे ।

शनिवार, 3 मार्च 2012

वहाँ सिर्फ रेत है

वहाँ
सिर्फ रेत है
पानी , हवा
आँखें  , स्वप्न
रेत की परिक्रमा है वहाँ
एकान्तिक उपाधि
अपने होने का अनुमान भी
रेत ही  है ।

" मैं " कभी नहीं

अभी
पूरी तरह नहीं हुआ
उसका होना
अभी 
अपरिचित है वह 
शायद
" मैं " कभी नहीं
मेरा होना ही जहाँ
द्वन्द्व है
वहीं उसके होने में 
उपासनाओं का एकाधिकार
पहचान सकता कोई
उसके " मैं " को
बिना किसी
लेखे - जोखे के 
परिचित होने से
पहले ।

ऋत - अनऋत

कहने भर ही नहीं है
वह जिज्ञासु
उसने
ऋत - अनऋत को
जाना है
वह गाढ़ी रात का
यात्री भी
गहन अँधेरे के पार
अपने ही पेरों पर
अपने ही घर में 
जीव - जगत के
बीच खड़ा
यात्री ।