शुक्रवार, 9 सितंबर 2011
रविवार, 4 सितंबर 2011
असंभव लगता
असंभव
लगता
कह पाना
यूँ मानो
अपने आप को
दोहराता हुआ
देह से भिन्न
कोई आस्वादन,
सत्य के
अनुकरण में
क्या इतना कुछ
काफी नहीं,
या फिर
इसका उल्टा
साल दर साल
किसी का
अनुयायी
बने रहना
शायद
असंभव ही |
शुक्रवार, 2 सितंबर 2011
सीख रहा हूँ
बादलों की
प्रदक्षिणा से
सीख रहा हूँ
द्वन्दरहित
अंतहीन
भिगोने की कला
क्या
इस अनुभूति में
अंतर्लीन होना
साक्षात्कार की
सहमती है
या फिर
थाह
किन्ही
कल - कल
स्मृतियों की |
प्रदक्षिणा से
सीख रहा हूँ
द्वन्दरहित
अंतहीन
भिगोने की कला
क्या
इस अनुभूति में
अंतर्लीन होना
साक्षात्कार की
सहमती है
या फिर
थाह
किन्ही
कल - कल
स्मृतियों की |
मंगलवार, 30 अगस्त 2011
अपना स्वर्ग - नर्क
अभी
कुछ और भी
साझा करना है
गहरी नींद से पहले
उन चुप्पियों को
गिटक लिया था जिन्हें कभी
हवाओं का
बहाना बनाकर
साझा करना है
अंतर्मन
अपना स्वर्ग - नर्क
संभवत:
बुद्धि मुक्त
व्यवहारों के
व्यापारों को
सोमवार, 29 अगस्त 2011
मैं शब्दों की पगडण्डी
डरता हूँ
सहानुभूतियों से
सुहाता नहीं अब
थाली में परोसा
स्नेहमय व्यवहार,
मठ को
त्यागते समय
आश्चर्य से
देखते रहे
परम्पराओं से बंधे
सन्यासी,
कहकर आया था उन्हें
कि
लौट जाओ
तुम सब अपनों में
मैं
शब्दों की
पगडण्डी
पकड़ता हूँ |
सहानुभूतियों से
सुहाता नहीं अब
थाली में परोसा
स्नेहमय व्यवहार,
मठ को
त्यागते समय
आश्चर्य से
देखते रहे
परम्पराओं से बंधे
सन्यासी,
कहकर आया था उन्हें
कि
लौट जाओ
तुम सब अपनों में
मैं
शब्दों की
पगडण्डी
पकड़ता हूँ |
बुधवार, 13 जुलाई 2011
अबोध सितारा
हर रोज़
जाग जाता
जगाने वाले से पहले
काल कि आहट
या फिर
महाकाल का जयघोष
अल - सुबह
शिप्रा के किनारे
टूटता है
बरगद के उस वृक्ष से
दो पंखों वाला सितारा
अबोध सितारा
बन जाने को
भस्मारती कि भस्म
हर रोज़
जगाने वाले से पहले |
मंगलवार, 12 जुलाई 2011
चन्द्रवदनी कि ओर
तिनकों से
नदी ने प्रवाह को
रोकने कि बात पर
झटपट
कुछ गडगडाती
छायाएँ
ढक लेती मुझे
कौने - कौने से
हजारों पैर
चले आते
बे - परवाह
भूख के अंदाजों को
पीछे छोड़
चन्द्रवदनी कि ओर
जहाँ
धूप, बादल , हवा
चढाते - लुढ़कते हैं
आजीवन |
रविवार, 10 जुलाई 2011
अयोग्य हूँ
अब तो
घटाना है
हो सके जितना,
जोड़ना बस कि नहीं
अयोग्य हूँ
इन विवास्थाओं में,
अनुपस्तिथ
अपने गंतव्य रहित
थोडा पीछे लौटकर ही
समझ सकता कोई
इन बातों को-
आगे जाने पर
निश्चित ही
वह भी
शिकार
अनुकरण का |
घटाना है
हो सके जितना,
जोड़ना बस कि नहीं
अयोग्य हूँ
इन विवास्थाओं में,
अनुपस्तिथ
अपने गंतव्य रहित
थोडा पीछे लौटकर ही
समझ सकता कोई
इन बातों को-
आगे जाने पर
निश्चित ही
वह भी
शिकार
अनुकरण का |
शनिवार, 9 जुलाई 2011
कहीं ज्यादा
कहीं ज्यादा
देखा जा सकता
बंद आँखों से
निः संदेह
अधीन होने से पहले
स्वीकारा भी
कहीं ज्यादा
अदृश्य
अपारदर्शी भाग्य
नर - देवता
पवित्र इच्छाएं
विशाल विश्व के तीर्थयात्री
निर्विकल्प समाधि
ॐ
कहीं ज्यादा |
गुरुवार, 7 जुलाई 2011
"चैत्र तृतीय"
देखे गए जब
उसके हस्ताक्षर
तो वहाँ लिखा था
"चैत्र तृतीय"
मैंने अपनी
आँखे बंद कर ली
कहने लगा
कुछ नहीं मिलेगा
जो यहाँ
वह
वहाँ भी
समझ गया कि
आप लेना नहीं चाहे
तो देना
कैसे संभव
क्या चमत्कारों से
भाग गए वे
बिन बोले ही
कुछ फ़ूल चढ़ाकर |
वह तो प्रत्यक्ष
कौन कसूरवार यहाँ
टिमटिमाती
आग पर सेकता जो
बारिश की बूंद
या फिर
घाटी के विस्तार को
सौन्दर्य
गहराई को
आध्यात्म कहता
पहाड़
वह तो
प्रत्यक्ष
ईश्वर ही ना |
बुधवार, 29 जून 2011
आकाश ही अन्तरिक्ष है
इतना
आसान नहीं
बांधना
आकाश को
उसका नीलापन
इक भूल
क्या- आकाश ही
अन्तरिक्ष है
अन्तरिक्ष
हमारे अन्दर तक
खीचे आकाश का
उत्कर्ष जो
या फिर
सूर्य-रश्मियों से
उत्पन
कोई
ब्रह्माकार वृति केवल |
रविवार, 19 जून 2011
छूती नहीं उसे
चिड़िया भी
पहाड़ों -सा रंग बदलती
हवा जानती है
छूती नहीं उसे
पक्का होने तक...
ठीक वैसे ही
जैसे तितली
बचती
अपने घर की ओर
लौटते वक्त
खजूर के
नुकीले पत्तों से |
धूप से पहले
धूप से पहले
छू लेना है
मुझे
पानी में घुला
मंजीठे का रंग
ज्यदा कुछ छिपाने को
क्या इसमें
पार-पाकर जैसे
विश्वास के
सन्मार्ग में
मुग्ध
लाल
और क्या |
तुमने अभी किया ही क्या है
हरे रंग को
हवा
उलट-पुलटकर
नीला कर देती है
बिना डुबोये ही
पूरा का पूरा आसमान
मोरकंठी - सा
मनमोहन
तब भी भगवन
उससे यही कहते
तुमने अभी
"किया ही क्या है"
हम कुछ भी
नहीं जान पाते
हवा चुपचाप
बह निकलती है
कार्तिकेय की
खोज में |
बुधवार, 15 जून 2011
असहकार
कितना मुश्किल
जान पड़ता
असहकार
प्रिय-अप्रिय के बीच
अपनी ही
चित्तवृतियों का नियमन
आप
मन का स्वामी
आप ही
अनुचर भी
स्वयमेव विनष्ट होने तक
छोड़ दो उन्हें यूँ ही
स्थिर हो जाने दो
देर-सबेर
संघर्षों के पार
सचेतन
दृढ
उदासीन
असहकार |
असहकार |
मंगलवार, 14 जून 2011
माटी से माटी
सब कुछ
माटी
तो फिर
माटी का मोल
माटी से क्यों
इतना आसान नहीं
ज्यदातर लोगों को तो
जाते समय समझ आता
और कुछ
नासमझे ही रह जाते
माटी से माटी
होने के लिए
कुम्हारों की चाकों पर
निरंतर
घूमते रहते
फिर रौंदे
फिर पकाए जाते
फिर माटी से माटी
होने के लिए |
शनिवार, 11 जून 2011
यूँ ही
ले जाएगा
वहाँ तक
जहाँ मिथ्या
लगने लगती
उपाधियाँ सारी
किसी भारमुक्त
पंछी की तरह
उन संख्याओं को
पीछे हटाकर
क्या
तैयार हो तुम
अपने देवता बदलने को
या फिर
बाँधोगे सीमाओं में
बोध की उस
अनावश्यक यथार्थ को
यूँ ही |
ज्ञानवृद आषाढ
कुछ भी
अधिकार नहीं
मुझे
पूछने का कि
तुम्हे
कहाँ स्थापित होना है
जनता हूँ
मेरे भाई
तुम आषाढ हो
निश्चित रूप से
कल्पनाओं से अधिक
शक्तिशाली
ज्ञानवृद
आषाढ
शुक्रवार, 10 जून 2011
मग्न शालिग्राम में
किसी ने पूछा
उससे की
आप कहाँ के हैं
वह निःशब्द
घोड़े से उतरकर
बैठ गया
खेजडे वृक्ष के नीचे
-समाधिस्थ-
कुछ छिपकर
निकल गए
कुछ लौट गए
बिना तर्क किये ही
कहते हैं
खोजते-खोजते वहाँ
एक ने पाया
सिंहासन
दूसरा था मग्न
शालिग्राम में |
गुरुवार, 9 जून 2011
समुद्र गोलाकार क्यों ?
आश्चर्य चकित हूँ
तुम्हारे
रहस्यों से
हे ! पृथ्वी
समतल तुम्हारी
भूमि
समुद्र गोलाकार
क्यों ?
तीन काल का झूठ
मै
रखवाली करता
परोसता हूँ
अग्नि
चिताओं को
मेरी स्मृति में
इससे ऊँचा
कुछ भी नहीं ,
सच मानकर बंध जाना
तीन काल का झूठ
कहता
मत आना पास
मत आना पास
पीपल का कोटर छोड़
इस मृत्यु लोक में
चाटते कुत्ते जहाँ
झूठी पत्तलें
देवताओं की
जलाता हूँ
मै तो
सिर्फ देह
वे तो अपराधी
आत्मा के |
मंगलवार, 7 जून 2011
एक सवाल
एक
सवाल है
सधा सवाल
क्या करूँ
उछाल दूँ
किसी गेंद-सा
या
बीज-सा
रोप दूँ उसे
रेत में
तुम चाहो तो
खोल देता हूँ
अंतिम सिरे तक
किसी अजनबी का नहीं
सीधा-सीधा हमारा
अपना सवाल |
शुक्रवार, 3 जून 2011
कुछ रंग धूप में
सुखाये थे
कुछ रंग
धूप में
शब्दों के संग,
हवा बहा ले गयी
जिन्हें...
अब कहती फिरती है
क्या कसूर मेरा
निर्वाद
जो बहती
पहले से
कहीं ज्यादा
ऊँचे
आकाश में |
बुधवार, 1 जून 2011
अमृत बीज
अब तो
सिर्फ
मृत्यु ही
बता सकती
उसका पता
किसी स्मृति में
नहीं वह
वहाँ कोई
बारीक़-सा
बिन बोया हुआ
बिन बोया हुआ
अमृत बीज भी नहीं |
|
ठगने दो उन्हें
बहुत सीधा
चल-चल के
कहने - सा
ठगने दो उन्हें
कृतार्थ हैं दोनों
जानते
उस आवशयक
विश्वाश से
की कौन
ठगा गया
अपने-अपने
सुख त्यागकर
उन अंतिम
संकेतों से पूर्व
ठीक ही तो है
ठगा जाना
कोई बुरी बात नहीं |
मंगलवार, 24 मई 2011
"महद यश "
अब तक
अजन्मा
किरणों पर
आरूढ़
निवृत नहीं
मोहग्रस्त हूँ
सविता के
वर्णीय तेज
उस
"महद यश " का
अब तक |
अग्नि में जल
दोनों ने
तय किया
अपना -अपना
विसर्जन
अग्नि में अग्नि
जल में जल
जल में अग्नि
अग्नि में जल
आकांक्षी दोनों ही
शेष
शिवोहम शिवोहम
शिवाय नमः |
शनिवार, 21 मई 2011
मंत्र हूँ मैं
मंत्र हूँ मैं
तुम्हारे लिए
इक मंत्र केवल
करना स्वाह है
जिसे
धधकते
अग्निकुंड में
ऐसा महामंत्र
सच ही तो है
गति तुम्हारी
सिद्ध होना
स्थान मेरा
वह
अन्तरिक्ष |
शुक्रवार, 20 मई 2011
उस -सा होना
उस -सा
होना ही
पाना है उसे
पहाड़
नदी
समंदर
सब यही तो कहते
मृत्यु
कुछ नहीं कहती
वह
बहुत छोटी जो
अभी
उस
ईश्वर से |
बुधवार, 18 मई 2011
परिंदा हो गया
पहली बार
इतना साहस
जब
भागना छोड़
स्वीकार किया
भीगना
किससे कहूँ
कि अब
मै
पत्थर से
परिंदा हो गया |
रविवार, 15 मई 2011
शनिवार, 14 मई 2011
संभव है
संभव है
जान पाना
सह-अस्तित्व के
नियमों को
जहाँ तुम
अज्ञात को ज्ञात पाते हो
उतार-चढ़ावों से भरी
एक-एक गांठ
उतने ही भावदृश्य दिखाती
जितनी पंखुड़ियाँ
सहस्त्रार
कुछ भूलकर
महाकारण में उतरना
मिलेजुले रूपांतरण जैसा
जिसके भीतर
कहीं और भी अधिक
फैली संभावनाएँ
संभव है |
गुरुवार, 12 मई 2011
अंतिम व्याधि तक |
फिर
फिरकर
जन्म लेने से
अच्छा है
यंहीं रहा जाये
रहते जैसे
पहाड़
बरगद
और
कछुआ
तीनो ही
माया के पार
अपनी-अपनी
अंतिम
व्याधि तक |
गुरुवार, 5 मई 2011
देव-शिल्प
आरोहण-अवरोहण
के मध्य
सूक्ष्म रेखा
ध्वनी,स्वप्न ,स्पंदन से भी सूक्ष्म
अति सूक्ष्म
रेतीली रेखा
जो करती निर्माण
इक देव-शिल्प का |
अप्राप्य नहीं
कुछ भी अप्राप्य नहीं
बादशाहत
गोपियों के नयन
मयूरपंख
एक वैरागी संकल्प
बाद
कुछ भी
अप्राप्य नहीं |
शायद यही कला है
एक टेढ़ी रेखा खीचने से पहले
जानना होगा सागर में व्याप्त
सीधी रेखा को
एक बिंदु कोरने से पहले
देखना होगा आकाश में गतिमान
सूर्य को
कतरा-कतरा रंग लगाने से पहले
माटी के रंगों में डुबोना होगा
स्वयं को
एक चित्र देखने से पहले
देखना होगा
चित्त को |
कितनी रिक्तता
कितनी रिक्तता
सहसा अजन्मा रास्ता
खोजता है अपना मुकाम
सवालों से गुजरता
जिन्दगी भर का सच
सिमट जाता अपने बचपन में
छुपा नहीं पाता
अनागत प्रतिबिम्ब
अपने आप सिमट जाती हैं
रेखाएँ
यकायक टूट जाता
सचमुच
निर्लिप्त आवाजों के सहारे ही
गुजर जाता यह संसार |
समय का ग्रास समय
समय का ग्रास समय
सोचता रहा
देखता रहा
पिघलते चाँद को
थका, सो गया
अब बदल चुके थे आईने
दिखा रहे अलग-अलग
प्रतिबिम्ब
किसी में पूरनमासी
तो कहीं चौथ का चन्द्रमा
झाँक रहा था
गहरे नीले
जल में|
उसकी आँखे
उसकी आँखों में जो
चमक थी
क्या कहूँ
सितारा या स्वप्न
एक तरफ आकाश
जिसकी परिधि रँगी
स्वर्ण वर्ण से
चिडिया चाहती बनाना
घोंसला
हिरन जहाँ विश्राम को लालायित
और भटक रहा था मै
शरणागति के लिए |
रात उन्हें फिर शब्द बना देगी |
रोज़ रात में खोलता हूँ पोथी
भोर होते ही शब्द चिड़िया बन
उड़ जाते हैं इक-इक कर
बस रह जाते कुछ
टूटे बिखरे पंख
सँजोता
बटोरता
रखता हूँ, किसी अन्य खाली पोथी में
आशा से
कि
रात उन्हें फिर शब्द बना देगी |
देवता होता है
समय
देवता होता है
पूजा जाता
गढ़ा जाता
जोड़ा जाता
माला जाता
आकर लेता
समय
कहने-सुनने लगता
अन्य देवताओं-सा
वर देने लगता
अप्रमेयता
दर्शाता
कभी बेबस हो जाता
वाकई
समय
देवता होता है |
शनिवार, 30 अप्रैल 2011
ऊँची घास में
पहाड़ भी
चाहते
कुटिया में रहना
इर्षा उनकी
बादलों से
अधिक ठण्ड होने पर
घुस जाते जो
ऊँची घास में |
डर
सिर्फ
आभास नहीं
निश्चित हूँ कि
वह
डरता है
अंतिम समय तक
ध्यान है उसका
दूसरों कि बातों पर
आश्चर्य
वह अब तक नहीं समझा
डर दूसरों से ही
लगता है |
स्पर्धा नहीं
स्पर्धा नहीं
अपने होने-सा
सजग स्पर्ष है
कविता में
झुककर
किसी दुस्साहस जैसा
स्वीकार किया गया हो जिसे
अब चुनाव
सिर्फ और सिर्फ
तुम पर निर्भर है
बाकी तो
आधा-अधूरा
स्तब्धता के
सौन्दर्य से परे |
ठंडी कविता
कितना जानो
अपने आप को
जितना की
लोग जानते
फिर भी नहीं
बोलते
वंहीं राह
चलते कविता
जानती भी
बोलती भी है
शायद कोयल
कविता ही
गर्म दोपहर में
ठंडी कविता |
शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011
तुम्ही बताओ
ध्यान रहे
सीखने में
कुछ खो ना जाए
वह भी
पराधीन होने का मार्ग ही
जन्मो-जन्मो से
अकाम होकर
अपने ह्रदय को
मन की वस्तुओं से
भरते रहना
आखिर कब तक
बूंद-बूंद
जोड़ना है
और
कुछ सीखना
किसके लिए
तुम्ही बताओ |
"नदी" नहीं देखी
आखिर
जान ही लिया
भविष्य
देखकर
टूटा-फूटा
आकाश
"नदी"
नहीं देखी
उन्होंने
बखूबी
नापती जो पूरा
शहर
एक चुप्पी साधे
बटवारे की |
लौट आये सब
लौट आये सब
सिवाय उन
तितलियों के
बैठ गयी जो
चट्टानों पर
छोटे-से
अवधूत संग
चंपा के
फूलों को
खिलने |
रविवार, 24 अप्रैल 2011
मृत्यु
कहते हैं
मृत्यु बुलाती है
लेकिन
जब मृत्यु को
कोई बुलाये तब
क्या ?
आएगी वह
छोड़कर अपना
घर-बार
बिन मोल-भाव किये
अनिर्वचनीय भाव से
कोई पुकारे- तब
ईश्वर जरूर
चले आयेंगे
अपेक्षाकृत सरल जो
मृत्यु से |
कुछ भूलकर
संभव है
जान पाना
सह-अस्तित्व के
सूक्ष्म नियमों को
जहाँ
तुम अज्ञात को
ज्ञात पाते हो
उतार-चढ़ावों से भरी
एक-एक गाँठ
उतने ही भाव दृश्य
दिखाती
जितनी पंखुड़ियाँ
सहस्त्रार,
कुछ भूलकर
जिसे महाकारण में
उतरना
और अधिक
संभव है |
गुरुवार, 21 अप्रैल 2011
एक दर्शन के लिए
अडिग हैं
बिना किसी शर्त
दूर कोहरे में
नहाये
पंक्तिबद्ध
मन्दाकिनी के
दूसरी ओर
हरे-पीले बासों के
झुरमुट
बिना अनुयायियों के
रखते जो जीवित
अपने आप को
हमेशा की तरह
जमी बर्फ के पिघलने तक
एक दर्शन के लिए |
शनिवार, 9 अप्रैल 2011
दूसरा कारागृह
सबकी
चाहना होना भी
दूसरा कारागृह है
अपेक्षाकृत
अधिक बोझल
उम्र का क्या अर्थ
जन्म से ही
प्रतिदिन जो
अपनी असल
सरलता को खोने तक
किन्ही
कथाकथित आदर्शो को
सहारा बनाकर
नाम की अंतहीन
कतारों में |
कतारों में |
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
सुना जो था
कल
सुना जो था
तुमने
पेड़ और उसके
दोस्तों का संवाद
बातों ही बातों में मैंने
तुम्हे
अचानक
एक गिलहरी ने
लपकर
मेज़ की खुली दराज़ से
पेंसिल चुरा-ली |
पुन: सोचो
पुन: सोचो
कि
सोचना सच हो
किसी
पावन स्थल - सा
यूँ मानो
पुरुरावास की
पृथ्वी
उर्वशी का
स्वर्ग
और हमारे लिए
पुरातन
भू-वैकुंठ
पुन: सोचो |
ऋतुएँ नहीं
उनके
कहने में
मत आना
सूरज भी
भटक गया था
अपने रास्ते से
एक बार
वे मृगतृष्णए हैं
ऋतुएँ नहीं-
अपनी ही रचना के
बंधन को जो
सहर्ष करे
स्वीकार |
बुधवार, 6 अप्रैल 2011
ग ह ना
वह जानता है
कैसे सुना जाये
अब तक जिसे
कहा न गया हो
फिर भी
व्याकुलता में
बार-बार भूल जाता
कि उसे
कहने से ज्यादा
सुनना आता है
अब उसके लिए
कहना कुछ नहीं
सिर्फ और सिर्फ
सुनना ही
ग ह ना
भर है|
गुरुवार, 31 मार्च 2011
महायोगिनी
विलीन
होना
बड़ी साधना जैसा
क्या है
सामर्थ्य
प्रयाग बनाने का
या फिर
हिचकिचाहट
मृत्यु नहीं
पुनर्जीवन
कितना कुछ होता विलीन
इर्द-गिर्द तुम्हारे
नदी
अरे! वह तो
महायोगिनी है |
मंगलवार, 29 मार्च 2011
अचरज की बात नहीं
अचरज की बात नहीं
स्वप्नत प्रतीकों में
गोते लगाना
जीवित हूँ
अब तक,
अच्छा ही है
निंदा-स्तुति में
उदासीन बने रहना
"अहंभाव में
डूबकर
मरने से" |
सोमवार, 28 मार्च 2011
गोद में हिमालय की
तुम
राजा हो
तुम ही करो चिंता
सोचते रहो
झुण्ड में बैठकर
-कि लोग क्या कहेंगे
मै
गोद में
हिमालय की
संचयों से
परे
अपनी ही
भावावस्था में
लीन |
शनिवार, 26 मार्च 2011
ध्यान की बात
ध्यान की बात
ध्यान से कही जाये
ऐसा कतई
जरुरी नहीं
वह
फूल की तरह है
बालों में सजने वाले
फूल की
तरह |
शुक्रवार, 25 मार्च 2011
गुरुवार, 24 मार्च 2011
कैलाश- से मिलता जुलता
मेरे
पास
धुंधले
दृश्यों के सिवा
कुछ नहीं
हाँ
कैलाश- से
मिलता जुलता
जगत का अंतहीन
आविर्भाव
और कुछ
फलती-फूलती
तीर्थयात्राएँ
केवल
सोमवार, 21 मार्च 2011
शनिवार, 19 मार्च 2011
तब क्या
कितना
सुख
लौटने का
वैराग्य से
श्रृंगार की ओर
मशान से
वृन्दावन जितना
लेकिन जब
दोनों
दीखे एक -से
तब क्या
शुक्रवार, 18 मार्च 2011
बाँट लो तुम
अंतिम
अवस्था तक
उन
शब्दार्थो के साथ
तुलना
हाँ
बाँट लो
तुम
सुख - दुःख
मैं इन
अवतारों के बीच
अनाड़ी ही सही
बुधवार, 16 मार्च 2011
सोमवार, 28 फ़रवरी 2011
रविवार, 27 फ़रवरी 2011
कैसी लगती है
कैसी लगती है
वास्तविकता
सृष्टी का रूपायन
अन्तरिक्षगत मरीचिका का स्वप्न
जल में उपजा वृक्ष
किनारों को तोडती
धवल लहरें
शून्य का उल्लास
सीमातीत
उस अदृश्य की ख़ोज
कैसी लगती है
वास्तविकता
सृष्टी का रूपायन
अन्तरिक्षगत मरीचिका का स्वप्न
जल में उपजा वृक्ष
किनारों को तोडती
धवल लहरें
शून्य का उल्लास
सीमातीत
उस अदृश्य की ख़ोज
कैसी लगती है
गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011
वापस आऊंगा
तीर
शब्द
भोर के स्वप्न
धरती में समाई जल की बूंद
बीता बचपन
अन्तरिक्ष से टूटे किसी पिंड जैसा
आँख से बहा आँसूं
कुंएं में फेंके चंद सिक्के
या फिर
गंगा में बही अस्थियों -सा
वापस आऊंगा
तीर
शब्द
भोर के स्वप्न
धरती में समाई जल की बूंद
बीता बचपन
अन्तरिक्ष से टूटे किसी पिंड जैसा
आँख से बहा आँसूं
कुंएं में फेंके चंद सिक्के
या फिर
गंगा में बही अस्थियों -सा
वापस आऊंगा
शब्द
भोर के स्वप्न
धरती में समाई जल की बूंद
बीता बचपन
अन्तरिक्ष से टूटे किसी पिंड जैसा
आँख से बहा आँसूं
कुंएं में फेंके चंद सिक्के
या फिर
गंगा में बही अस्थियों -सा
वापस आऊंगा
सोमवार, 14 फ़रवरी 2011
बुधवार, 2 फ़रवरी 2011
शुक्रवार, 28 जनवरी 2011
"हं"
नि:संदेह
स्थायी होता है
देह से अलग
वह बीज
मह:लोक से
सम्बन्ध हो जिसका
आकांक्षी
चेतन आकाश-लय की
कामना करता है
वह
नीलवर्णी
किसी स्वरयन्त्र-सा
प्रलय पार
नि:संदेह
सहस्रार की
उन खुली
पंखुरिओं तक
स्थायी होता है
देह से अलग
वह बीज
मह:लोक से
सम्बन्ध हो जिसका
आकांक्षी
चेतन आकाश-लय की
कामना करता है
वह
नीलवर्णी
किसी स्वरयन्त्र-सा
प्रलय पार
नि:संदेह
सहस्रार की
उन खुली
पंखुरिओं तक
"हं"
"हं"
"हं"
उचारतागुरुवार, 6 जनवरी 2011
एरावत का देश
बुलाती है
अपने होने की
ठसक के साथ
स्पर्श करती किन्ही
किरणों- सी
तार-तार
पार कर जाती है
आगंतुक
धीरे से
मंत्र पढ़ता
चुनना है उसे
एक केवल
बंध मुट्ठी
एरावत का देश
या फिर
पारिजात
शायद इस बार
वह
विफल नहीं .
अपने होने की
ठसक के साथ
स्पर्श करती किन्ही
किरणों- सी
तार-तार
पार कर जाती है
आगंतुक
धीरे से
मंत्र पढ़ता
चुनना है उसे
एक केवल
बंध मुट्ठी
एरावत का देश
या फिर
पारिजात
शायद इस बार
वह
विफल नहीं .
शुभ यात्रा
उसे भूलने में ही
भलाई है
सिर्फ लिखा जाता जिसे
कभी-कभी
कहा-
फिर क्या दिखाई पड़ता
इक नया दिवस
हाँ
बहुत अंतर है
पृथ्वी सा होने में
हवा
उसका क्या
शुभ यात्राएँ हीं
भलाई है
सिर्फ लिखा जाता जिसे
कभी-कभी
कहा-
फिर क्या दिखाई पड़ता
इक नया दिवस
हाँ
बहुत अंतर है
पृथ्वी सा होने में
हवा
उसका क्या
शुभ यात्राएँ हीं
डर नहीं अब
सतह
से
सतह तक
भारमुक्त
कितनी ऊंचाई पर
टिका रहता है
तपते-तपते
सोखता सरेआम
जन्मान्तरों से
डर नहीं अब
खिर जाने का
कहने को रच लिया
आज उसने
सर्द रात में
चीड़ों पर चढ़ी
चांदनी का
अन्तरिक्ष .
से
सतह तक
भारमुक्त
कितनी ऊंचाई पर
टिका रहता है
तपते-तपते
सोखता सरेआम
जन्मान्तरों से
डर नहीं अब
खिर जाने का
कहने को रच लिया
आज उसने
सर्द रात में
चीड़ों पर चढ़ी
चांदनी का
अन्तरिक्ष .
वृक्ष संगीत
इक
अनुष्ठान लुभाता है
लगातार
कुछ सीखने-सीखाने का अर्थ
सजीव होता जहाँ
शायद ही कोई
उन अधखुले
आकारों के साथ
अपने हिस्से के
एकांत को
समुद्र संकल्प सा सींचता होगा
साध-साधकर
शब्दों को
पा लेता होगा
महागनय
वृक्ष संगीत
अब तो
औपचारिक प्रार्थनायें भी
ओझल हो चुकी
सहम गयी
उस अनजाने
पलायन से .
अनुष्ठान लुभाता है
लगातार
कुछ सीखने-सीखाने का अर्थ
सजीव होता जहाँ
शायद ही कोई
उन अधखुले
आकारों के साथ
अपने हिस्से के
एकांत को
समुद्र संकल्प सा सींचता होगा
साध-साधकर
शब्दों को
पा लेता होगा
महागनय
वृक्ष संगीत
अब तो
औपचारिक प्रार्थनायें भी
ओझल हो चुकी
सहम गयी
उस अनजाने
पलायन से .
इक
अनुष्ठान लुभाता है
कश्मीर के पहाड़
मनमाने
मृत्यु उत्सवों में
भाग लेने से
मोक्ष नहीं मिलता
कश्मीर के पहाड़
ऐसा कहने लगे हैं
अरे !
उन्हें अब पाता चला क्या
बात वहीँ की
बहुत पुरानी है .
मृत्यु उत्सवों में
भाग लेने से
मोक्ष नहीं मिलता
कश्मीर के पहाड़
ऐसा कहने लगे हैं
अरे !
उन्हें अब पाता चला क्या
बात वहीँ की
बहुत पुरानी है .
बस का नहीं उसके
अब तो
सिद्ध हो चुका
पा लिया वरदान
कहीं भी प्रकट होता है
आज बड़ा है
उसका दुःख
स्वयं
ईश्वर से
वह भी थक चुका
बस का नहीं उसके
ये विलाप
सिद्ध हो चुका
पा लिया वरदान
कहीं भी प्रकट होता है
आज बड़ा है
उसका दुःख
स्वयं
ईश्वर से
वह भी थक चुका
बस का नहीं उसके
ये विलाप
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