शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

छू -- कर

अंतर 
दोनों में 
आजीवन ,
लौटने 
लौटाने जैसा
बादल 
या 
पहाड़ 
छोटे हो जाते 
दोनों ही 

छू -- कर
जहाँ | 

दूर की बात

बिना 
उलट - पुलट 
सूरज भी 
धीरे से 
स्वीकार लेता 
वह सत्य 
जिससे आँखे मूंद लेते हम 
सहज सरोकार है 
उसका 
हमारा अनुराग तो 
यदाकदा वाला ही 
न रहने पर 
कभी स्पष्ट नहीं रहने जैसा 
स्वीकारना तो उसे 
जैसे 
दूर की बात |

रविवार, 4 सितंबर 2011

असंभव लगता

असंभव 
लगता
कह पाना 
यूँ मानो 
अपने आप को 
दोहराता हुआ 
देह से भिन्न 
कोई आस्वादन, 
सत्य के
अनुकरण में 
क्या इतना कुछ 
काफी नहीं,
या फिर 
इसका उल्टा 
साल दर साल 
किसी का 
अनुयायी 
बने रहना 
शायद 
असंभव ही |

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

सीख रहा हूँ

बादलों की
प्रदक्षिणा से
सीख रहा हूँ
द्वन्दरहित
अंतहीन
भिगोने की कला

क्या
इस अनुभूति में
अंतर्लीन होना
साक्षात्कार की
सहमती है

या फिर
थाह
किन्ही
कल - कल
स्मृतियों की |

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

अपना स्वर्ग - नर्क


अभी
कुछ और भी
साझा करना है
गहरी नींद से पहले
उन चुप्पियों को
गिटक लिया था जिन्हें कभी
हवाओं का
बहाना बनाकर
साझा करना है
अंतर्मन
अपना स्वर्ग - नर्क
संभवत:
बुद्धि मुक्त
व्यवहारों के
व्यापारों को

सोमवार, 29 अगस्त 2011

मैं शब्दों की पगडण्डी

डरता हूँ
सहानुभूतियों से
सुहाता नहीं अब
थाली में परोसा
स्नेहमय व्यवहार,
मठ को
त्यागते समय
आश्चर्य से
देखते रहे
परम्पराओं से बंधे
सन्यासी,
कहकर आया था उन्हें
कि
लौट जाओ
तुम सब अपनों में
मैं
शब्दों की
पगडण्डी
पकड़ता हूँ |

बुधवार, 13 जुलाई 2011

अबोध सितारा

हर रोज़ 
जाग जाता 
जगाने वाले से पहले 
काल कि आहट 
या फिर 
महाकाल का जयघोष 
अल - सुबह 
शिप्रा के किनारे 
टूटता है 
बरगद के उस वृक्ष से 
दो पंखों वाला सितारा 
अबोध सितारा 
बन जाने को 
भस्मारती कि भस्म 
हर रोज़ 
जगाने वाले से पहले |

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

चन्द्रवदनी कि ओर

तिनकों से 
नदी ने प्रवाह को 
रोकने कि बात पर 
झटपट 
कुछ गडगडाती 
छायाएँ 
ढक लेती मुझे 
कौने - कौने से 
हजारों पैर
चले आते 
बे - परवाह 
भूख के अंदाजों को 
पीछे छोड़ 
चन्द्रवदनी कि ओर 
जहाँ 
धूप, बादल , हवा 
चढाते - लुढ़कते हैं 
आजीवन |

रविवार, 10 जुलाई 2011

अयोग्य हूँ

अब तो 
घटाना है 
हो सके जितना, 
जोड़ना बस कि नहीं
अयोग्य हूँ 
इन विवास्थाओं में,
अनुपस्तिथ 
अपने गंतव्य रहित 
थोडा पीछे लौटकर ही 
समझ सकता कोई 
इन बातों को- 
आगे जाने पर 
निश्चित ही 
वह भी 
शिकार 
अनुकरण का |

शनिवार, 9 जुलाई 2011

कहीं ज्यादा

कहीं ज्यादा 
देखा जा सकता 
बंद आँखों से 
निः संदेह 
अधीन होने से पहले 
स्वीकारा भी 
कहीं ज्यादा 
अदृश्य
अपारदर्शी भाग्य 
नर - देवता
पवित्र इच्छाएं 
विशाल विश्व के तीर्थयात्री 
निर्विकल्प समाधि 
ॐ 
कहीं ज्यादा |

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

"चैत्र तृतीय"

देखे गए जब 
उसके हस्ताक्षर 
तो वहाँ लिखा था 
 "चैत्र तृतीय"
मैंने अपनी 
आँखे बंद कर ली 
कहने लगा 
कुछ नहीं मिलेगा 
जो यहाँ 
वह 
वहाँ भी 
समझ गया कि
आप लेना नहीं चाहे 
तो देना 
कैसे संभव 
क्या चमत्कारों से 
भाग गए वे 
बिन बोले ही 
कुछ फ़ूल चढ़ाकर |

वह तो प्रत्यक्ष

कौन कसूरवार यहाँ 
टिमटिमाती 
आग पर सेकता जो 
बारिश की बूंद 
या फिर 
घाटी के विस्तार को 
सौन्दर्य 
गहराई को 
आध्यात्म कहता 
पहाड़ 
वह तो 
प्रत्यक्ष 
ईश्वर ही ना |

बुधवार, 29 जून 2011

आकाश ही अन्तरिक्ष है

इतना 
आसान नहीं 
बांधना
आकाश को 
उसका नीलापन 
इक भूल 
क्या- आकाश ही 
अन्तरिक्ष है
अन्तरिक्ष 
हमारे अन्दर तक 
खीचे आकाश का 
उत्कर्ष जो 
या फिर 
सूर्य-रश्मियों से  
उत्पन 
कोई 
ब्रह्माकार वृति केवल |

रविवार, 19 जून 2011

छूती नहीं उसे


चिड़िया भी 
पहाड़ों -सा रंग बदलती 
हवा जानती है 
छूती नहीं उसे 
पक्का होने तक...
ठीक वैसे ही 
जैसे तितली 
बचती 
अपने घर की ओर
लौटते वक्त

खजूर के 
नुकीले पत्तों से |

धूप से पहले

धूप से पहले 
छू लेना है 
मुझे 
पानी में घुला 
मंजीठे का रंग 
ज्यदा कुछ छिपाने को 
क्या इसमें 
पार-पाकर जैसे 
विश्वास के 
सन्मार्ग में 
मुग्ध 
लाल 
और क्या |

तुमने अभी किया ही क्या है

हरे रंग को 
हवा 
उलट-पुलटकर 
नीला कर देती है 
बिना डुबोये ही 
पूरा का पूरा आसमान 
मोरकंठी - सा 
मनमोहन 
तब भी भगवन 
उससे यही कहते 
तुमने अभी 
"किया ही क्या है"
हम कुछ भी 
नहीं जान पाते 
हवा चुपचाप  
बह निकलती है 
कार्तिकेय की 
खोज में |

बुधवार, 15 जून 2011

असहकार

कितना मुश्किल 
जान पड़ता 
असहकार 
प्रिय-अप्रिय के बीच 
अपनी ही 
चित्तवृतियों का नियमन 
आप 
मन का स्वामी 
आप ही 
अनुचर भी
स्वयमेव विनष्ट होने तक 
छोड़ दो उन्हें यूँ ही  
स्थिर हो जाने दो 
देर-सबेर 
संघर्षों के पार 
सचेतन 
दृढ 
उदासीन
असहकार |

मंगलवार, 14 जून 2011

माटी से माटी

सब कुछ 
माटी
तो फिर 
माटी का मोल 
माटी से क्यों 
इतना आसान नहीं 
ज्यदातर लोगों को तो 
जाते समय समझ आता 
और कुछ 
नासमझे ही रह जाते 
माटी से माटी 
होने के लिए 
कुम्हारों की चाकों पर 
निरंतर 
घूमते रहते 
फिर रौंदे 
फिर पकाए जाते 
फिर माटी से माटी 
होने के लिए |

शनिवार, 11 जून 2011

यूँ ही

ले जाएगा 
वहाँ तक
जहाँ मिथ्या 
लगने लगती 
उपाधियाँ सारी
किसी भारमुक्त 
पंछी की तरह 
उन संख्याओं को 
पीछे हटाकर 
क्या 
तैयार हो तुम 
अपने देवता बदलने को 
या फिर 
बाँधोगे सीमाओं में 
बोध की उस 
अनावश्यक यथार्थ को 
यूँ ही | 

ज्ञानवृद आषाढ

कुछ भी 
अधिकार नहीं 
मुझे 
पूछने का कि 
तुम्हे 
कहाँ स्थापित होना है 
जनता हूँ 
मेरे भाई 
तुम आषाढ हो 
निश्चित रूप से 
कल्पनाओं से अधिक 
शक्तिशाली 
ज्ञानवृद 
आषाढ

शुक्रवार, 10 जून 2011

मग्न शालिग्राम में

किसी ने पूछा
उससे की 
आप कहाँ के हैं 
वह निःशब्द  
घोड़े से उतरकर
बैठ गया
खेजडे वृक्ष के नीचे 
-समाधिस्थ- 
कुछ छिपकर 
निकल गए  
कुछ लौट गए 
बिना तर्क किये ही 
कहते हैं 
खोजते-खोजते वहाँ
एक ने पाया 
सिंहासन 
दूसरा था मग्न 
शालिग्राम में |

गुरुवार, 9 जून 2011

समुद्र गोलाकार क्यों ?

आश्चर्य चकित हूँ 
तुम्हारे 
रहस्यों से 
हे ! पृथ्वी 
समतल तुम्हारी  
भूमि 
समुद्र गोलाकार 
क्यों ?

तीन काल का झूठ

मै
रखवाली करता 
परोसता हूँ 
अग्नि 
चिताओं को 
मेरी स्मृति में 
इससे ऊँचा 
कुछ भी नहीं ,
सच मानकर बंध जाना 
तीन काल का झूठ 
कहता
मत आना पास 
पीपल का कोटर छोड़ 
इस मृत्यु लोक में 
चाटते कुत्ते जहाँ
झूठी पत्तलें 
देवताओं की 
जलाता हूँ
मै तो 
सिर्फ देह 
वे तो अपराधी 
आत्मा के |

मंगलवार, 7 जून 2011

एक सवाल

एक
सवाल है 
सधा सवाल 
क्या करूँ 
उछाल दूँ 
किसी गेंद-सा 
या 
बीज-सा 
रोप दूँ उसे 
रेत में 
तुम चाहो तो 
खोल देता हूँ 
अंतिम सिरे तक 
किसी अजनबी का नहीं 
सीधा-सीधा हमारा 
अपना सवाल |



शुक्रवार, 3 जून 2011

कुछ रंग धूप में

सुखाये थे
कुछ रंग 
धूप में 
शब्दों के संग,
हवा बहा ले गयी 
जिन्हें... 
अब कहती फिरती है 
क्या कसूर मेरा
निर्वाद 
जो बहती 
पहले से 
कहीं ज्यादा 
ऊँचे 
आकाश में |

बुधवार, 1 जून 2011

अमृत बीज

अब तो 
सिर्फ 
मृत्यु ही 
बता सकती 
उसका पता 
किसी स्मृति में 
नहीं वह 
वहाँ कोई 
बारीक़-सा
बिन बोया हुआ
अमृत बीज भी नहीं | 
 |

ठगने दो उन्हें

बहुत सीधा 
चल-चल के 
कहने - सा 
ठगने दो उन्हें 
कृतार्थ हैं दोनों  
जानते 
उस आवशयक 
विश्वाश से 
की कौन 
ठगा गया 
अपने-अपने 
सुख त्यागकर 
उन अंतिम
संकेतों से पूर्व 
ठीक ही तो है 
ठगा जाना 
कोई बुरी बात नहीं |

मंगलवार, 24 मई 2011

"महद यश "

अब तक 
अजन्मा 
किरणों पर 
आरूढ़ 
निवृत नहीं 
मोहग्रस्त हूँ 
सविता के 
वर्णीय तेज 
उस 
"महद यश " का 
अब तक  |

अग्नि में जल

दोनों ने 
तय किया 
अपना -अपना 
विसर्जन 
अग्नि में अग्नि 
जल में जल 
जल में अग्नि 
अग्नि में जल 
आकांक्षी दोनों ही
शेष  
शिवोहम शिवोहम
शिवाय नमः |

शनिवार, 21 मई 2011

मंत्र हूँ मैं

मंत्र हूँ मैं
तुम्हारे लिए 
इक मंत्र केवल 
करना स्वाह है 
जिसे 
धधकते 
अग्निकुंड में 
ऐसा महामंत्र 
सच ही तो है 
गति तुम्हारी 
सिद्ध होना 
स्थान मेरा 
वह 
अन्तरिक्ष |

शुक्रवार, 20 मई 2011

उस -सा होना

उस -सा 
होना ही 
पाना है उसे 
पहाड़ 
नदी 
समंदर
सब यही तो कहते 
मृत्यु
कुछ नहीं कहती 
वह 
बहुत छोटी जो 
अभी
उस
ईश्वर से |

बुधवार, 18 मई 2011

परिंदा हो गया

पहली बार 
इतना साहस
जब 
भागना छोड़ 
स्वीकार किया 
भीगना 
किससे कहूँ 
कि अब 
मै
पत्थर से 
परिंदा हो गया |

रविवार, 15 मई 2011

नर्मदे-हर

फूल भी 
वैरागी 
उन चट्टानों-सा 
भयमुक्त 
भजता जो 
साँस-साँस 
नर्मदे-हर |

नर्मदा -2


चाँद 
के ध्यान में 
नर्मदा 
मेंडक की 
डूबुक-सी 
आवाज़ 
चौंकती 
चांदनी को |

नर्मदा -1

सुनता हूँ 
उसकी बातें 
सूरज 
कुछ-कुछ 
चुरा लेता 
जानती वह
कहती जाती 
भर देगी उसे भी 
एक दिन 
नर्मदा |


शनिवार, 14 मई 2011

संभव है

संभव है 
जान पाना 
सह-अस्तित्व के 
नियमों को 
जहाँ तुम 
अज्ञात को ज्ञात पाते हो 
उतार-चढ़ावों से भरी 
एक-एक गांठ 
उतने ही भावदृश्य दिखाती
जितनी पंखुड़ियाँ
सहस्त्रार 
कुछ भूलकर 
महाकारण में उतरना 
मिलेजुले रूपांतरण जैसा 
जिसके भीतर 
कहीं और भी अधिक 
फैली संभावनाएँ
संभव है |

गुरुवार, 12 मई 2011

अंतिम व्याधि तक |

फिर 
फिरकर 
जन्म लेने से 
अच्छा है 
यंहीं रहा जाये 
रहते जैसे 
पहाड़ 
बरगद 
और 
कछुआ 
तीनो ही 
माया के पार 
अपनी-अपनी 
अंतिम 
व्याधि तक |

गुरुवार, 5 मई 2011

देव-शिल्प

आरोहण-अवरोहण
के मध्य 
सूक्ष्म रेखा 
ध्वनी,स्वप्न ,स्पंदन से भी सूक्ष्म 
अति सूक्ष्म 
रेतीली रेखा 
जो करती निर्माण 
इक देव-शिल्प का |

अप्राप्य नहीं

कुछ भी अप्राप्य नहीं 
बादशाहत 
गोपियों के नयन 
मयूरपंख 
एक वैरागी संकल्प 
बाद 
कुछ भी 
अप्राप्य नहीं |

शायद यही कला है

एक टेढ़ी रेखा  खीचने से पहले 
जानना होगा सागर में व्याप्त 
सीधी रेखा को

एक बिंदु कोरने से पहले 
देखना होगा आकाश में गतिमान
सूर्य को

कतरा-कतरा रंग लगाने से पहले 
माटी के रंगों में डुबोना होगा 
स्वयं को

एक चित्र देखने से पहले 
देखना होगा 
चित्त को |    

कितनी रिक्तता

कितनी रिक्तता 
सहसा अजन्मा रास्ता 
खोजता है अपना मुकाम 
सवालों से गुजरता 
जिन्दगी भर का सच 
सिमट जाता अपने बचपन में 
छुपा नहीं पाता
अनागत प्रतिबिम्ब 
अपने आप सिमट जाती हैं 
रेखाएँ
यकायक टूट जाता 
सचमुच 
निर्लिप्त आवाजों के सहारे ही 
गुजर जाता यह संसार |

समय का ग्रास समय

समय का ग्रास समय 
सोचता रहा 
देखता रहा 
पिघलते चाँद को 
थका, सो गया 
अब बदल चुके थे आईने 
दिखा रहे अलग-अलग 
प्रतिबिम्ब 
किसी में पूरनमासी 
तो कहीं चौथ का चन्द्रमा 
झाँक रहा था 
गहरे नीले 
जल में|

उसकी आँखे

उसकी आँखों में जो 
चमक थी 
क्या कहूँ 
सितारा या स्वप्न 
एक तरफ आकाश 
जिसकी परिधि रँगी
स्वर्ण वर्ण से 
चिडिया चाहती बनाना 
घोंसला
हिरन जहाँ विश्राम को लालायित 
और भटक रहा था मै
शरणागति के लिए |   

रात उन्हें फिर शब्द बना देगी |

रोज़ रात में खोलता हूँ पोथी 
भोर होते ही शब्द चिड़िया बन 
उड़ जाते हैं इक-इक कर 
बस रह जाते कुछ 
टूटे बिखरे पंख 
सँजोता
बटोरता 
रखता हूँ, किसी अन्य खाली पोथी में 
आशा से 
कि
रात उन्हें फिर शब्द बना देगी |  

इच्छा

सूर्य की किरणों पर 
पहुचना चाहता 
सूर्य तक
इसी लोक में 
इसी जन्म में 
इसी देह में | 

देवता होता है

समय 
देवता होता है
पूजा जाता 
गढ़ा जाता 
जोड़ा जाता 
माला जाता 
आकर लेता 
समय 
कहने-सुनने लगता 
अन्य देवताओं-सा  
वर देने लगता 
अप्रमेयता 
दर्शाता 
कभी बेबस हो जाता 
वाकई 
समय 
देवता होता है |

शनिवार, 30 अप्रैल 2011

ऊँची घास में

पहाड़ भी 
चाहते 
कुटिया में रहना 
इर्षा उनकी 
बादलों से 
अधिक ठण्ड होने पर 
घुस जाते जो 
ऊँची घास में |

डर

सिर्फ  
आभास नहीं 
निश्चित हूँ कि
वह 
डरता है 
अंतिम समय तक 
ध्यान है उसका 
दूसरों कि बातों पर 
आश्चर्य 
वह अब तक नहीं समझा 
डर दूसरों से ही 
लगता है |

स्पर्धा नहीं

स्पर्धा नहीं 
अपने होने-सा 
सजग स्पर्ष है 
कविता में 
झुककर 
किसी दुस्साहस जैसा 
स्वीकार किया गया हो जिसे 
अब चुनाव 
सिर्फ और सिर्फ 
तुम पर निर्भर है 
बाकी तो 
आधा-अधूरा
स्तब्धता के 
सौन्दर्य से  परे |

ठंडी कविता

कितना जानो 
अपने आप  को 
जितना की 
लोग जानते 
फिर भी नहीं 
बोलते 
वंहीं राह 
चलते कविता 
जानती भी 
बोलती भी है 
शायद कोयल 
कविता ही 
गर्म दोपहर में 
ठंडी कविता |

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

तुम्ही बताओ

ध्यान रहे 
सीखने में 
कुछ खो ना जाए 
वह भी 
पराधीन होने का मार्ग ही 
जन्मो-जन्मो से 
अकाम होकर 
अपने ह्रदय को 
मन की वस्तुओं से 
भरते रहना 
आखिर कब तक 
बूंद-बूंद 
जोड़ना है 
और
कुछ सीखना 
किसके लिए 
तुम्ही बताओ |

"नदी" नहीं देखी

आखिर 
जान ही लिया 
भविष्य 
देखकर 
टूटा-फूटा
आकाश 
"नदी"
नहीं देखी 
उन्होंने
बखूबी 
नापती जो पूरा 
शहर 
एक  चुप्पी साधे
बटवारे की |

लौट आये सब

लौट आये सब
सिवाय उन 
तितलियों के 
बैठ गयी जो 
चट्टानों पर 
छोटे-से 
अवधूत संग 
चंपा के 
फूलों को 
खिलने |

रविवार, 24 अप्रैल 2011

मृत्यु

कहते हैं 
मृत्यु बुलाती है 
लेकिन 
जब मृत्यु को 
कोई बुलाये तब 
क्या ?
आएगी वह 
छोड़कर अपना 
घर-बार 
बिन मोल-भाव किये 
अनिर्वचनीय भाव से 
कोई पुकारे- तब 
ईश्वर जरूर 
चले आयेंगे 
अपेक्षाकृत सरल जो 
मृत्यु से |

कुछ भूलकर

संभव है 
जान पाना 
सह-अस्तित्व के 
सूक्ष्म नियमों को 
जहाँ 
तुम अज्ञात को 
ज्ञात पाते हो 
उतार-चढ़ावों से भरी 
एक-एक गाँठ 
उतने ही भाव दृश्य 
दिखाती 
जितनी पंखुड़ियाँ
सहस्त्रार, 
कुछ भूलकर
जिसे महाकारण में 
उतरना 
और अधिक  
संभव है |

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

स्थिर

बहता पानी 
स्थिर 
अद्वेत में स्थित 
मैं 
भिक्षा मांगकर भी 
अहंकारी |

एक दर्शन के लिए

अडिग हैं 
बिना किसी शर्त 
दूर कोहरे में 
नहाये
पंक्तिबद्ध 
मन्दाकिनी के
दूसरी ओर
हरे-पीले बासों के 
झुरमुट 
बिना अनुयायियों के 
रखते जो जीवित 
अपने आप को 
हमेशा की तरह
जमी बर्फ के पिघलने तक 
एक दर्शन के लिए |

ये गंगा है |

बहाकर 
ले जाती 
मेरी परछाईं को 
क्यों 
भूल जाता हूँ 
ये गंगा है |

"गंगा" उसकी तो जय हो |

खुला है 
विकल्प 
अंतिम अभी
हिमालय की 
तीर्थयात्राओं का 
"गंगा"
उसकी तो 
जय हो |   

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

दूसरा कारागृह

सबकी 
चाहना होना भी 
दूसरा कारागृह है 
अपेक्षाकृत 
अधिक बोझल 
उम्र का क्या अर्थ 
जन्म से ही 
प्रतिदिन जो  
अपनी असल 
सरलता को खोने तक 
किन्ही 
कथाकथित आदर्शो को 
सहारा बनाकर 
नाम की अंतहीन
कतारों में |

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

सुना जो था

कल 
सुना जो था 
तुमने 
पेड़ और उसके 
दोस्तों का संवाद 
बातों ही बातों में मैंने 
तुम्हे 
अचानक 
एक गिलहरी ने
लपकर 
मेज़ की खुली दराज़ से 
पेंसिल चुरा-ली |

पुन: सोचो

पुन: सोचो 
कि
सोचना सच हो 
किसी 
पावन स्थल - सा 
यूँ मानो
पुरुरावास की
पृथ्वी 
उर्वशी का 
स्वर्ग 
और हमारे लिए 
पुरातन 
भू-वैकुंठ
पुन: सोचो |

ऋतुएँ नहीं

उनके 
कहने में 
मत आना 
सूरज भी 
भटक गया था 
अपने रास्ते से 
एक बार 
वे मृगतृष्णए हैं 
ऋतुएँ नहीं-
अपनी ही रचना के 
बंधन को जो 
सहर्ष करे 
स्वीकार |

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

ग ह ना

वह जानता है 
कैसे सुना जाये 
अब तक जिसे 
कहा न गया हो 
फिर भी 
व्याकुलता में 
बार-बार भूल जाता
कि उसे  
कहने से ज्यादा 
सुनना आता है 
अब उसके लिए 
कहना कुछ नहीं 
सिर्फ और सिर्फ
सुनना ही  
ग ह ना  
भर है| 

गुरुवार, 31 मार्च 2011

महायोगिनी

विलीन 
होना 
बड़ी साधना जैसा 
क्या है 
सामर्थ्य
प्रयाग बनाने का  
या फिर 
हिचकिचाहट 
मृत्यु नहीं 
पुनर्जीवन 
कितना कुछ होता विलीन 
इर्द-गिर्द तुम्हारे 
नदी 
अरे! वह तो 
महायोगिनी है | 

मंगलवार, 29 मार्च 2011

अचरज की बात नहीं

अचरज की बात नहीं 
स्वप्नत प्रतीकों में 
गोते लगाना 
जीवित हूँ 
अब तक,
अच्छा ही है
निंदा-स्तुति में 
उदासीन बने रहना 
"अहंभाव में  
डूबकर 
मरने से" |

सोमवार, 28 मार्च 2011

गोद में हिमालय की

तुम 
राजा हो 
तुम ही करो चिंता 
सोचते रहो 
झुण्ड में बैठकर
-कि लोग क्या कहेंगे 
मै
गोद में 
हिमालय की
 संचयों से 
परे 
अपनी ही 
भावावस्था में 
लीन |

शनिवार, 26 मार्च 2011

ध्यान की बात

ध्यान की बात 
ध्यान से कही जाये 
ऐसा कतई
जरुरी नहीं 
वह 
फूल की तरह है 
बालों में सजने वाले 
फूल की 
तरह | 

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

समाधि

अपेक्षाएँ
कभी नहीं रह पाती
अनुपात में 
उनका 
संक्षेप होना ही 
समाधि है 

गुरुवार, 24 मार्च 2011

कैलाश- से मिलता जुलता

मेरे
पास 
धुंधले 
दृश्यों के सिवा 
कुछ नहीं  
हाँ 
कैलाश- से
मिलता जुलता 
जगत का अंतहीन 
आविर्भाव
और कुछ 
फलती-फूलती 
तीर्थयात्राएँ
केवल  

सोमवार, 21 मार्च 2011

आदित

सूर्य 
पिघलकर 
पहाड़ का 
आदित 
आदित वह 
सूर्य ही 
या 
स्वर्णिम चोटी
पहाड़ की 

शनिवार, 19 मार्च 2011

तब क्या

कितना 
सुख 
लौटने का 
वैराग्य से 
श्रृंगार की ओर
मशान से 
वृन्दावन जितना 
लेकिन जब 
दोनों 
दीखे एक -से 
तब क्या 

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

बाँट लो तुम

अंतिम
अवस्था तक 
उन 
शब्दार्थो के साथ  
तुलना 

हाँ
बाँट लो 
तुम 
सुख - दुःख 

मैं इन 
अवतारों के बीच 
अनाड़ी ही सही 

बुधवार, 16 मार्च 2011

मै पहाड़

मै
पहाड़ 
अगले 
सात जन्मों तक 
तपस्वी पहाड़ 
उम्र के पुर्वार्ध से ही 
रौशनी 
अंधेरों के पार
अमुक्त 
प्रतीक्षारत 
जागता
पहाड़ 

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

कौन जानता किसे पता !

कहाँ प्रारंभ 
कहाँ अंत 
इन पराख्यानों का 
कौन -से चाक पर 
किस प्रजापति ने गढ़ा
और तपाया 
किस अग्निकुंड में 
कहाँ वे रंग 
कहाँ वह तूलिका
कौन -से वृक्षों ने दी छाव इन्हें 
कौन -सा जल भरा गया इनमे 
कौन -सी धरा में किया विलीन 
कौन -सा तत्त्व कहाँ 
कौन जानता किसे पता !

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

कैसी लगती है

कैसी लगती है
वास्तविकता
सृष्टी का रूपायन
अन्तरिक्षगत मरीचिका का स्वप्न
जल में उपजा वृक्ष
किनारों को तोडती
धवल लहरें
शून्य का उल्लास
सीमातीत
उस अदृश्य की ख़ोज
कैसी लगती है

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

देव शिल्प

आरोहण - अवरोहण
के मध्य 

सूक्ष्म रेखा 
ध्वनि
स्वप्न 
स्पंदन से भी सूक्ष्म 
अति सूक्ष्म 
रेतीली रेखा 
जो करती निर्माण 
इक देव शिल्प का

वापस आऊंगा

तीर
शब्द
भोर के स्वप्न
धरती में समाई जल की बूंद
बीता बचपन
अन्तरिक्ष से टूटे किसी पिंड जैसा
आँख से बहा आँसूं
कुंएं में फेंके चंद  सिक्के
या फिर
गंगा में बही अस्थियों -सा
वापस आऊंगा

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

स्मरण

मृत्यु
का
स्मरण ही
जीवन है

जीवन
की
मृत्यु
कैसी

मृत्यु
जीवन
स्मृति
स्मरण
जैसी 

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

"हं"

नि:संदेह
स्थायी होता है
देह से अलग
वह बीज
मह:लोक से
सम्बन्ध हो  जिसका
आकांक्षी
चेतन आकाश-लय की
कामना करता है

वह
नीलवर्णी
किसी स्वरयन्त्र-सा
प्रलय पार
नि:संदेह
सहस्रार की
उन खुली
पंखुरिओं तक

"हं"
"हं" 
"हं" 
उचारता

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

एरावत का देश

बुलाती है
अपने होने की
ठसक के साथ
स्पर्श करती किन्ही
किरणों- सी
तार-तार
पार कर जाती है
आगंतुक
धीरे से
मंत्र पढ़ता
चुनना है उसे
एक केवल
बंध मुट्ठी
एरावत का देश
या फिर
पारिजात
शायद इस बार
वह
विफल नहीं .

शुभ यात्रा

उसे भूलने में ही
भलाई है
सिर्फ लिखा जाता जिसे
कभी-कभी
कहा-
फिर क्या दिखाई पड़ता
इक नया दिवस
हाँ
बहुत अंतर है
पृथ्वी सा होने में
हवा
उसका क्या
शुभ यात्राएँ हीं

डर नहीं अब

सतह
से
सतह तक
भारमुक्त
कितनी ऊंचाई पर
टिका रहता है
तपते-तपते
सोखता सरेआम
जन्मान्तरों से
डर नहीं अब
खिर जाने का
कहने को रच लिया
आज उसने
सर्द रात में
चीड़ों पर चढ़ी
चांदनी का
अन्तरिक्ष .

वृक्ष संगीत

इक
अनुष्ठान लुभाता है
लगातार
कुछ सीखने-सीखाने का अर्थ
सजीव होता जहाँ
शायद ही कोई
उन अधखुले
आकारों के साथ
अपने हिस्से के
एकांत को
समुद्र संकल्प सा सींचता होगा
साध-साधकर
शब्दों को
पा लेता होगा
महागनय
वृक्ष संगीत
अब तो
औपचारिक प्रार्थनायें भी
ओझल हो चुकी
सहम गयी
उस अनजाने
पलायन से .

इक 
अनुष्ठान लुभाता है 

कश्मीर के पहाड़

मनमाने
मृत्यु उत्सवों में
भाग लेने से
मोक्ष नहीं मिलता
कश्मीर के पहाड़
ऐसा कहने लगे हैं
अरे !
उन्हें अब पाता चला क्या
बात वहीँ की
बहुत पुरानी है .

बस का नहीं उसके

अब तो
सिद्ध हो चुका
पा लिया वरदान
कहीं भी प्रकट होता है
आज बड़ा है
उसका दुःख
स्वयं
ईश्वर से
वह भी थक चुका
बस का नहीं उसके
ये विलाप