सोमवार, 2 जुलाई 2012

हर बार


अक्षरों के 
प्रशासन को दोहराते
बीत जाती है उम्र 
जाने - अनजाने 
हम छुड़ा भी लेते अपने आप को 
कितनी सहजता से स्वीकार करते हैं 
समुद्र, आकाश के उमड़ते उफान 
कभी चिड़िया, कभी तितली बन 
रात और दिन बाँधते 
उस अनदेखे विस्तार को 
हर बार |

निर्धारित शब्दों में

 धीरे - धीरे
ख़त्म होने लगी आकांशा 
खुलने की , 
आवाजों के सहारे चलने 
और अपनी ह़ी चीजों को पाने की,
धीरे - धीरे 
ज्यादा करीब आने लगा हूँ  
सीखने लगा रुकना,
पहाड़ से उतरती 
नदी को देखना, 
धीरे - धीरे 
समाने लगा 
किन्ही निर्धारित शब्दों में 
जोगी होकर  डूबते - डूबते
गृहस्थी के विश्वास को 
पाने लगा हूँ  |