गुरुवार, 31 जुलाई 2014

गुणातीत

गुणातीत

दृश्यमान आयामों के आगे की यात्रा ही 
मौन ! का वास्तविक अनुगमन है
कुछ लोग बखूबी जानते जिसे 
तभी तो गुज़ार देते वे 
अपने देश काल को 
बंद खुली पलकों संग
गुणातीत
स्थितप्रज्ञ बनकर।   

बुधवार, 30 जुलाई 2014

तत त्वं असि, तू वह है

तत त्वं असि, तू वह है

स्वपन से भी पतला है 
अनुभव 
कहता सुख दुःख उसके नहीं 
अहंकार के हैं 
तीनों ही शरीरों में एक - सी 
अभिव्यक्ति जहाँ 
अचिन्त्य, अरूप और अमात्र है 
भाव, बुद्धि स्मृतियों के पार 
तत त्वं असि 
तू वह है 
तत त्वं असि। 

असंग आकाश

असंग आकाश 

आकाश ही असंग 
प्रतीति जो शून्यता की 
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु नहीं 
छूआ उन्हें दिक्काल की सीमाओं ने 
आकाश अंग - अंग 
असंग 
अलिप्त है। 

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

इक बड़ी बात

इक बड़ी बात


स्वयं ही अपने प्रश्नों के उत्तर पाना 
अपने ही खर्राटों को सुनने गिनने - सा 
जागते सोना और सोते जाग जाना 
समझदारों में सबसे बड़ा भौंदू कहलाना
दिन दोपहर तपते सूरज में समाना 
तिनके - सा जलकर मिट जाना 
देह राख विसर्जित कर 
तन्मात्रा संगत पाना 
अपने होने को खो देना
बूंद बूंद - सा झर जाना  
इक बड़ी बात है। 

शब्द कहे से कहीं अधिक

शब्द कहे से कहीं अधिक

पहले हम पाने के लिए 
और फिर 
पाये को छोड़ने की 
प्रार्थना करते हैं, 
कितना अंतर होता 
पाने  और छोड़ने में  
निस्संशय 
हमारे शब्द कहे से कहीं अधिक । 

अभ्यास स्वभाव हो जाता

अभ्यास स्वभाव हो जाता

जल्द ही 
अभ्यास स्वभाव हो जाता है 
पहाड़ी नदी में लुढ़कते - लुढ़कते 
पत्थरों जैसा गोल 
अपनी चुभन को खोकर 
चमकदार हो जाता है 
फिर
बंद खुली आँखों के मायने नहीं रह जाते 
प्रश्नों के दायरे भी सिमट जाते
असंभव भी तब संभव हो पाता है  
जब अभ्यास स्वभाव हो जाता है । 

सोमवार, 28 जुलाई 2014

मौन 1,2,3

मौन 1 

युगों-युगों से 
शब्द छोटे रह जाते हैं 
वस्तुतः 
डूब ही जाते वे 
मौन के उस महासागर में ।   


मौन 2 

समय के ठहर जाने पर 
वाणी के अर्थ नहीं रह जाते 
सिर्फ दृष्टि ही काफी होती जहाँ 
असल पाने को 
मन का अहंकार राख़-सा झर जाता 
मौन के सुरमयी समागम में। 

मौन 3 

कोरी 
गहरी चुप्पी नहीं 
मौन ! मन को मानने का 
अतीन्द्रियदर्शी सुकोमल अनुभव है। 

परिशुद्ध शब्द

परिशुद्ध शब्द

ध्वस्त करने उस पूर्व-संचित 
संदेह की देह को 
अपना वास्तविक अर्थ पाकर 
सीधे ही उतरते हैं 
स्वयं प्रमाणित शब्द, 
ऋषियों की 
अनगिनत यात्राओं के साक्षी 
अनुभव भरे ये 
पावन परिशुद्ध शब्द ।

स्वपन साक्षी

स्वपन साक्षी 



जागृति में केवल 
उपस्थिति है 

स्वपन में  
साक्षी होने की नियति
सच वहाँ तो 
स्वयं के होने का स्वयं ही 
दृष्टा होना है ।

रविवार, 20 जुलाई 2014

ऋत के रंग

ऋत के रंग  
 ही इस सृष्टि कि असल सनातन लय है। उस सजीव सत्य का पर्यायवाचीजिसके होने के अपने उद्देश्य औरनिर्धारित आधार हैँयही वह महत्तर तत्व है जिसके कारण तमाम चेतन - अचेतन धाराओं के बीच निर्वर्तित समभाव सुनिश्चित है। यक़ीनन ऋत एक ऐसे सामञ्जस्य कि चदरिया है जिसमे निसर्ग का अंशअंश तानेबाने - सा रचाबुना है।उसकी अटल धुरी के सहारे हि यह समस्त भव और उसका स्वभाव गतिमान है। 

हज़ारों हज़ार बरसों से हम ऐसे हि ऋत की उपासना करते आये हैं। ऋगवेदउपनिषद तथा पुराणोँ में जिसकि संवित संज्ञाएँसम्मिलित हैँउस "ऋतम्" शब्द की वास्तविक अनुगूँज इस सम्पूर्ण सत्ता पर कही गयी सुन्दर कविता - सी मालूम पड़तीहै। एक तरफ ऋत को जहाँ सत्य कहा गया है तो वहीँ सत्य को जीवन का अमूल्य 
तत्व, वस्तुतः ऋत अनेक अर्थोंवाली अभिव्यक्त जीवन रचना है जिसमें कितना कुछ परत दर परत 
अन्तर्निहित है।  

ऋत के अपने रंग हैं और अपना संगीत भीजिसके दोहरे अर्थ कई - कई स्तरों पर स्वयं को प्रकट कर उच्चतर संवाद रचतेदीखते हैं। उसके अनन्य आयामों का उल्लेख किया जाना बहुत कठिन है लेकिन सहृदयी अनुभूति अत्यन्त सहजउसका सुकोमल स्पर्ष सहसा हि उसकी दिव्य उपस्थिती का प्रमाण है। ऋत के परिकर में 
मानो पूरा का पूरा जगत चलायमान हैऔर हम मनुष्य भी उसकी इस गति के सूक्ष्म अंश भर हैँवास्तव में उसेपाना अथवा उसमे समाना अपने आप में एकविशिष्ठ अवस्था की तरफ संकेत है जहाँ उस अनादि लय के 
साथ अभिन्न संगत होना किसी अलौकिक अनुभव से कमनहींये सब अनुभूतियों की बात है प्रत्यक्षानुभूतियों के भी आगे की बात। 

देश - काल भी इसी ऋत के अधीन हैवे भी उसके संग समन्वय की संगत करते नज़र आते हैंहर क्षण अपने आप कोप्रासंगिक नवीनता से भरकर सजीवता से उस सर्वोच्य महापथ की ओर आशा भरी निगाहों से देखते हैं,जिसका अनुक्रमसदैव शुभकारी है। परोक्ष-अपरोक्ष परिवर्तन उसी ऋत का सौन्दर्य है सही मायनों में वह उसका जन्मजात गुणधर्म जानपड़ता है।ज्ञात - अज्ञातज्ञेय - अज्ञेयनित्य - अनित्यसत्य - असत्य जैसे तमाम तत्व उसकी ही तीख़ी धार पर स्वयं को परखते हैं। शायद इसी के इर्दगिर्द वह प्राणअथवा चेतना सरीखी शक्ति संचालित है या यूँ कहें की उनकी गति भी ऋत में निहित है। 

अब सवाल यह उठता है कि ऋत का अधिष्ठा कौन हैआखिर उसके रंगों को कौन भरता हैकौन गढ़ता है उसकी काया,कितने ही देवता ऋत के नियंता होने का दावा भर करते है लेकिन वे भी उस लय का हिस्सा भर है

ऋत को धारण करनासाक्षात ऋत होना हैसत्य होना हैसम होना है। 

                                                         
                                                          अमित कल्ला  
                                                                                                                        जयपुर