बुधवार, 13 जुलाई 2011

अबोध सितारा

हर रोज़ 
जाग जाता 
जगाने वाले से पहले 
काल कि आहट 
या फिर 
महाकाल का जयघोष 
अल - सुबह 
शिप्रा के किनारे 
टूटता है 
बरगद के उस वृक्ष से 
दो पंखों वाला सितारा 
अबोध सितारा 
बन जाने को 
भस्मारती कि भस्म 
हर रोज़ 
जगाने वाले से पहले |

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

चन्द्रवदनी कि ओर

तिनकों से 
नदी ने प्रवाह को 
रोकने कि बात पर 
झटपट 
कुछ गडगडाती 
छायाएँ 
ढक लेती मुझे 
कौने - कौने से 
हजारों पैर
चले आते 
बे - परवाह 
भूख के अंदाजों को 
पीछे छोड़ 
चन्द्रवदनी कि ओर 
जहाँ 
धूप, बादल , हवा 
चढाते - लुढ़कते हैं 
आजीवन |

रविवार, 10 जुलाई 2011

अयोग्य हूँ

अब तो 
घटाना है 
हो सके जितना, 
जोड़ना बस कि नहीं
अयोग्य हूँ 
इन विवास्थाओं में,
अनुपस्तिथ 
अपने गंतव्य रहित 
थोडा पीछे लौटकर ही 
समझ सकता कोई 
इन बातों को- 
आगे जाने पर 
निश्चित ही 
वह भी 
शिकार 
अनुकरण का |

शनिवार, 9 जुलाई 2011

कहीं ज्यादा

कहीं ज्यादा 
देखा जा सकता 
बंद आँखों से 
निः संदेह 
अधीन होने से पहले 
स्वीकारा भी 
कहीं ज्यादा 
अदृश्य
अपारदर्शी भाग्य 
नर - देवता
पवित्र इच्छाएं 
विशाल विश्व के तीर्थयात्री 
निर्विकल्प समाधि 
ॐ 
कहीं ज्यादा |

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

"चैत्र तृतीय"

देखे गए जब 
उसके हस्ताक्षर 
तो वहाँ लिखा था 
 "चैत्र तृतीय"
मैंने अपनी 
आँखे बंद कर ली 
कहने लगा 
कुछ नहीं मिलेगा 
जो यहाँ 
वह 
वहाँ भी 
समझ गया कि
आप लेना नहीं चाहे 
तो देना 
कैसे संभव 
क्या चमत्कारों से 
भाग गए वे 
बिन बोले ही 
कुछ फ़ूल चढ़ाकर |

वह तो प्रत्यक्ष

कौन कसूरवार यहाँ 
टिमटिमाती 
आग पर सेकता जो 
बारिश की बूंद 
या फिर 
घाटी के विस्तार को 
सौन्दर्य 
गहराई को 
आध्यात्म कहता 
पहाड़ 
वह तो 
प्रत्यक्ष 
ईश्वर ही ना |