मंगलवार, 24 मई 2011

"महद यश "

अब तक 
अजन्मा 
किरणों पर 
आरूढ़ 
निवृत नहीं 
मोहग्रस्त हूँ 
सविता के 
वर्णीय तेज 
उस 
"महद यश " का 
अब तक  |

अग्नि में जल

दोनों ने 
तय किया 
अपना -अपना 
विसर्जन 
अग्नि में अग्नि 
जल में जल 
जल में अग्नि 
अग्नि में जल 
आकांक्षी दोनों ही
शेष  
शिवोहम शिवोहम
शिवाय नमः |

शनिवार, 21 मई 2011

मंत्र हूँ मैं

मंत्र हूँ मैं
तुम्हारे लिए 
इक मंत्र केवल 
करना स्वाह है 
जिसे 
धधकते 
अग्निकुंड में 
ऐसा महामंत्र 
सच ही तो है 
गति तुम्हारी 
सिद्ध होना 
स्थान मेरा 
वह 
अन्तरिक्ष |

शुक्रवार, 20 मई 2011

उस -सा होना

उस -सा 
होना ही 
पाना है उसे 
पहाड़ 
नदी 
समंदर
सब यही तो कहते 
मृत्यु
कुछ नहीं कहती 
वह 
बहुत छोटी जो 
अभी
उस
ईश्वर से |

बुधवार, 18 मई 2011

परिंदा हो गया

पहली बार 
इतना साहस
जब 
भागना छोड़ 
स्वीकार किया 
भीगना 
किससे कहूँ 
कि अब 
मै
पत्थर से 
परिंदा हो गया |

रविवार, 15 मई 2011

नर्मदे-हर

फूल भी 
वैरागी 
उन चट्टानों-सा 
भयमुक्त 
भजता जो 
साँस-साँस 
नर्मदे-हर |

नर्मदा -2


चाँद 
के ध्यान में 
नर्मदा 
मेंडक की 
डूबुक-सी 
आवाज़ 
चौंकती 
चांदनी को |

नर्मदा -1

सुनता हूँ 
उसकी बातें 
सूरज 
कुछ-कुछ 
चुरा लेता 
जानती वह
कहती जाती 
भर देगी उसे भी 
एक दिन 
नर्मदा |


शनिवार, 14 मई 2011

संभव है

संभव है 
जान पाना 
सह-अस्तित्व के 
नियमों को 
जहाँ तुम 
अज्ञात को ज्ञात पाते हो 
उतार-चढ़ावों से भरी 
एक-एक गांठ 
उतने ही भावदृश्य दिखाती
जितनी पंखुड़ियाँ
सहस्त्रार 
कुछ भूलकर 
महाकारण में उतरना 
मिलेजुले रूपांतरण जैसा 
जिसके भीतर 
कहीं और भी अधिक 
फैली संभावनाएँ
संभव है |

गुरुवार, 12 मई 2011

अंतिम व्याधि तक |

फिर 
फिरकर 
जन्म लेने से 
अच्छा है 
यंहीं रहा जाये 
रहते जैसे 
पहाड़ 
बरगद 
और 
कछुआ 
तीनो ही 
माया के पार 
अपनी-अपनी 
अंतिम 
व्याधि तक |

गुरुवार, 5 मई 2011

देव-शिल्प

आरोहण-अवरोहण
के मध्य 
सूक्ष्म रेखा 
ध्वनी,स्वप्न ,स्पंदन से भी सूक्ष्म 
अति सूक्ष्म 
रेतीली रेखा 
जो करती निर्माण 
इक देव-शिल्प का |

अप्राप्य नहीं

कुछ भी अप्राप्य नहीं 
बादशाहत 
गोपियों के नयन 
मयूरपंख 
एक वैरागी संकल्प 
बाद 
कुछ भी 
अप्राप्य नहीं |

शायद यही कला है

एक टेढ़ी रेखा  खीचने से पहले 
जानना होगा सागर में व्याप्त 
सीधी रेखा को

एक बिंदु कोरने से पहले 
देखना होगा आकाश में गतिमान
सूर्य को

कतरा-कतरा रंग लगाने से पहले 
माटी के रंगों में डुबोना होगा 
स्वयं को

एक चित्र देखने से पहले 
देखना होगा 
चित्त को |    

कितनी रिक्तता

कितनी रिक्तता 
सहसा अजन्मा रास्ता 
खोजता है अपना मुकाम 
सवालों से गुजरता 
जिन्दगी भर का सच 
सिमट जाता अपने बचपन में 
छुपा नहीं पाता
अनागत प्रतिबिम्ब 
अपने आप सिमट जाती हैं 
रेखाएँ
यकायक टूट जाता 
सचमुच 
निर्लिप्त आवाजों के सहारे ही 
गुजर जाता यह संसार |

समय का ग्रास समय

समय का ग्रास समय 
सोचता रहा 
देखता रहा 
पिघलते चाँद को 
थका, सो गया 
अब बदल चुके थे आईने 
दिखा रहे अलग-अलग 
प्रतिबिम्ब 
किसी में पूरनमासी 
तो कहीं चौथ का चन्द्रमा 
झाँक रहा था 
गहरे नीले 
जल में|

उसकी आँखे

उसकी आँखों में जो 
चमक थी 
क्या कहूँ 
सितारा या स्वप्न 
एक तरफ आकाश 
जिसकी परिधि रँगी
स्वर्ण वर्ण से 
चिडिया चाहती बनाना 
घोंसला
हिरन जहाँ विश्राम को लालायित 
और भटक रहा था मै
शरणागति के लिए |   

रात उन्हें फिर शब्द बना देगी |

रोज़ रात में खोलता हूँ पोथी 
भोर होते ही शब्द चिड़िया बन 
उड़ जाते हैं इक-इक कर 
बस रह जाते कुछ 
टूटे बिखरे पंख 
सँजोता
बटोरता 
रखता हूँ, किसी अन्य खाली पोथी में 
आशा से 
कि
रात उन्हें फिर शब्द बना देगी |  

इच्छा

सूर्य की किरणों पर 
पहुचना चाहता 
सूर्य तक
इसी लोक में 
इसी जन्म में 
इसी देह में | 

देवता होता है

समय 
देवता होता है
पूजा जाता 
गढ़ा जाता 
जोड़ा जाता 
माला जाता 
आकर लेता 
समय 
कहने-सुनने लगता 
अन्य देवताओं-सा  
वर देने लगता 
अप्रमेयता 
दर्शाता 
कभी बेबस हो जाता 
वाकई 
समय 
देवता होता है |