गुरुवार, 28 जून 2012

चुप्पी


सुबह - शाम 
वह कुछ सोचता है 
कौन नहीं सोचता यहाँ !
अपने होने के सवालों को 
बिन जाने 
बिन समझे ह़ी 
शायद इसलिए चुप नहीं 
की बोलना नहीं आता 
कुछ अर्थ सहित बोला जाये 
यही उसकी हर रोज़ की  
बे  - सबब चुप्पी है |

मंगलवार, 19 जून 2012

वह तो
नहीं में रमता है
होने में कह  सकता
क्या कोई,
नहीं में खोज सकता
जिसे है
विचरता
वह अजन्मा,
अचरज नहीं कि
खाली में वही भरा है
                           भरकर होता जो अधिक निर्भर
                            रखता पास अपने
क्या - क्या बिलोकर
कुछ हंसी
निः संकोच
भूल जाने की
अक्सर तिरते जो तितली - से
परवाह किये बगेर ही सितारों की
कसिजते कभी
जुराबों में अपनी ही
कहीं ज्यादा
विकसित होने की
नक़ल में ।

सोमवार, 18 जून 2012

पदार्थ बनते " हम " बेचारे


कितना कुछ है यहाँ
अपना कहने - सा
होता जो 
प्राप्त - प्राप्तव्य
कितना कुछ 
ज्ञात - ज्ञातव्य भी 
फिर भी हम 
वही उल्टा पाठ करते हैं 
हमेशा की तरह 
बाकी ना रहने की चाह में 
अंश - अंश उसके होने पर भी सशंकित 
करने, होने और 
यहाँ - वहाँ की मानने के 
बीच ह़ी कहीं 
उसी अप्राप्त को प्राप्त करने की 
लालसा में आलिप्त 
खयाली परिस्थिति के 
पदार्थ बनते  " हम " बेचारे 
कितना कुछ है यहाँ |

मंगलवार, 12 जून 2012

सागरमाथा

घूम - घूमकर
रचता है अपना समय
बंधता जो बरसाती धुनें भी
पूर्वजों की परम्पराओं को
भावों को  भाषाओँ  में भरकर
पृथ्वी की
कितनी ही यात्राएं करता है
इस बार यह तो
स्पस्ट है कि
साफ़ - सुथरा दिखाई देगा आसमान
इस बार
रंगों के धुंधलकों के पार
होगा अंतिम पर्व
धमक रहित
ऊपर उठती गहराई
ठीक सामने उसके
सागरमाथा है
इसबार  

मंगलवार, 5 जून 2012

कोई ऐसा ही अविनाशी

वही जो
विच्छेद करता सम्मोहन
खोज लेता है
प्रकृति का सम्बन्ध
स्थित भी रहता आप में अपने
तृप्त त्यागता जो
स्वार्थ मनोगत
समय के बीत जाने पर
नित्य
योग - वियोग में
अहम् के मिट जाने पर
पाता एक नया जन्म
कितना कठिन
चूर्ण करना अपना मद
जीवों में वह हाथी
मिलना कठिन कोई विरला फिर
त्यागता वह रस जो
कोई ऐसा ही
अविनाशी ।