वह तो
नहीं में रमता है
होने में कह सकता
क्या कोई,
नहीं में खोज सकता
जिसे है
विचरता
वह अजन्मा,
अचरज नहीं कि
खाली में वही भरा है
भरकर होता जो अधिक निर्भर
रखता पास अपने
क्या - क्या बिलोकर
कुछ हंसी
निः संकोच
भूल जाने की
अक्सर तिरते जो तितली - से
परवाह किये बगेर ही सितारों की
कसिजते कभी
जुराबों में अपनी ही
कहीं ज्यादा
विकसित होने की
नक़ल में ।
घूम - घूमकर
रचता है अपना समय
बंधता जो बरसाती धुनें भी
पूर्वजों की परम्पराओं को
भावों को भाषाओँ में भरकर
पृथ्वी की
कितनी ही यात्राएं करता है
इस बार यह तो
स्पस्ट है कि
साफ़ - सुथरा दिखाई देगा आसमान
इस बार
रंगों के धुंधलकों के पार
होगा अंतिम पर्व
धमक रहित
ऊपर उठती गहराई
ठीक सामने उसके
सागरमाथा है
इसबार
वही जो
विच्छेद करता सम्मोहन
खोज लेता है
प्रकृति का सम्बन्ध
स्थित भी रहता आप में अपने
तृप्त त्यागता जो
स्वार्थ मनोगत
समय के बीत जाने पर
नित्य
योग - वियोग में
अहम् के मिट जाने पर
पाता एक नया जन्म
कितना कठिन
चूर्ण करना अपना मद
जीवों में वह हाथी
मिलना कठिन कोई विरला फिर
त्यागता वह रस जो
कोई ऐसा ही
अविनाशी ।