शब्द
अनुमान लगाते हैं
अपनी ही
दृष्टी में
खोज लेते
अनुभव
स्मृति
मौन !
क्या
उतरा जा सकता
आवेग की
गहराइयों में
बदला जा सकता
वह
अदृश्य सम्बन्ध
संयोग से
समय-समय पर
उन रचनाओं से
गुज़र
अनेक स्थितियों में
विकल्प
साबित होते हैं
वैसे ही जैसे
उचित अर्थ लिए
ध्वनि का
कृतज्ञ होता है
आकाश
मंगलवार, 29 सितंबर 2009
शनिवार, 26 सितंबर 2009
काला कौवा
काला कौवा
सूरज का
टुकडा पकडे
नई देह धरता
इतिहास की
सवारी कर
स्वांस स्वांस
स्वर्ण द्वीपों पर बैठे
पुरखों की अंजुलिओं को
गुडधानी से भरता है
काला कौवा
खोज लेता
हज़ार हाथियों पर
सवार अपने
आकाश को
गढ़ता
नक्षत्रीय गलियारे
बहुधा छानता
मीठी धूप
उड़ा देता
चौबाई हवाएं
काला कौवा
जाडों को बुनता
आँखों में जन्मे
जलावर्त को
पोखर में छोड़
बन जाता
स्वयं उसका
परिकर
काला कौवा
तपते सूरज को
डूबों डूबों कर
ठण्डा करता है
सूरज का
टुकडा पकडे
नई देह धरता
इतिहास की
सवारी कर
स्वांस स्वांस
स्वर्ण द्वीपों पर बैठे
पुरखों की अंजुलिओं को
गुडधानी से भरता है
काला कौवा
खोज लेता
हज़ार हाथियों पर
सवार अपने
आकाश को
गढ़ता
नक्षत्रीय गलियारे
बहुधा छानता
मीठी धूप
उड़ा देता
चौबाई हवाएं
काला कौवा
जाडों को बुनता
आँखों में जन्मे
जलावर्त को
पोखर में छोड़
बन जाता
स्वयं उसका
परिकर
काला कौवा
तपते सूरज को
डूबों डूबों कर
ठण्डा करता है
कितना फासला
कितना
फासला
हमारे और देवताओं के
बीच
पलक भर का
या फिर
उससे अधिक
राजधानी की सड़कों सा
कितना
फासला
हमारे और देवताओं के
बीच
पलक भर का
या फिर
उससे अधिक
राजधानी की सड़कों सा
कितना
आजीवन मौन में
कहते हैं
सूरज के साथ साथ
इक बहुत बड़ा
संसार डूब जाता है
जहाँ
पूर्वी हवाएँ
वृताकार रेखाएँ
और
सरकंडों पर पसरी धूप
मल्लाह के अंगोछे से
लिपट जाती है
श्रुतानुश्रुत कर देती
धाराओं को
बर्फ सी सफ़ेद आँखे
उखाड़ फैंकती है
खलुच का रेखागणित
पुकारता
देता जो आवाज़
सिरजनहारे को
यथा ही नहीं
असंख्य लोक
परत दर परत
भानुमती का पिटारा खोलते
बटोरते कभी
स्वर्ण पंख
तो कभी
दौड़ जाते
आमूर्तित अश्व से
उसी मुग्धा में
वशिभूत हो
खिचे आते बारम्बार
पिया कभी था जिसने
अक्षयता का
घूंट
समासीन
आज
वह
आजीवन
मौन में
सूरज के साथ साथ
इक बहुत बड़ा
संसार डूब जाता है
जहाँ
पूर्वी हवाएँ
वृताकार रेखाएँ
और
सरकंडों पर पसरी धूप
मल्लाह के अंगोछे से
लिपट जाती है
श्रुतानुश्रुत कर देती
धाराओं को
बर्फ सी सफ़ेद आँखे
उखाड़ फैंकती है
खलुच का रेखागणित
पुकारता
देता जो आवाज़
सिरजनहारे को
यथा ही नहीं
असंख्य लोक
परत दर परत
भानुमती का पिटारा खोलते
बटोरते कभी
स्वर्ण पंख
तो कभी
दौड़ जाते
आमूर्तित अश्व से
उसी मुग्धा में
वशिभूत हो
खिचे आते बारम्बार
पिया कभी था जिसने
अक्षयता का
घूंट
समासीन
आज
वह
आजीवन
मौन में
उहापोह
जगह-जगह
उहापोह
करते करते
कदाचित
धंस जाता
असंभव व्यापार
कांट छाँट कर
स्वप्न दुरुस्त करता है
काफी हद तक
दुनिया आज भी
वैसी ही है
दूर की बात नहीं
हर तीसरे प्रहर आता है
अपने डेरे पर
बीज आगमन के समाचार सुनकर
जलाशय में फैंक देता
चाबियाँ
क्या कभी
कृपा दिखलाई
ईंट और पत्थर का
अनुमान ही लगते रहो तुम
निकल गया वह तो
फिर से
अपनी
तीर्थयात्राओं पर
उहापोह
करते करते
कदाचित
धंस जाता
असंभव व्यापार
कांट छाँट कर
स्वप्न दुरुस्त करता है
काफी हद तक
दुनिया आज भी
वैसी ही है
दूर की बात नहीं
हर तीसरे प्रहर आता है
अपने डेरे पर
बीज आगमन के समाचार सुनकर
जलाशय में फैंक देता
चाबियाँ
क्या कभी
कृपा दिखलाई
ईंट और पत्थर का
अनुमान ही लगते रहो तुम
निकल गया वह तो
फिर से
अपनी
तीर्थयात्राओं पर
झिलमिल फुलझडी
झिलमिल
फुलझडी
हस्तक्षेप करती है
अपनी ही
प्रतिछवि का
गुणकीर्तन कर
निंदिया के
स्याह लहज़े को
पहचानती
कितना
बे- अक्ल साबित होता
कामधेनु को पकड़ना
दौड़ादौडी में अक्सर
चरचरा जाती
बनावट
कितने ही
रूपाकारों के साथ
शहतूत की वर्णमाला
मुलायम
संख्याओं की बनावट में
अपने रूपक अक्स के
सहयात्री खोजती है
झिलमिल
फुलझडी
हस्तक्षेप करती है
फुलझडी
हस्तक्षेप करती है
अपनी ही
प्रतिछवि का
गुणकीर्तन कर
निंदिया के
स्याह लहज़े को
पहचानती
कितना
बे- अक्ल साबित होता
कामधेनु को पकड़ना
दौड़ादौडी में अक्सर
चरचरा जाती
बनावट
कितने ही
रूपाकारों के साथ
शहतूत की वर्णमाला
मुलायम
संख्याओं की बनावट में
अपने रूपक अक्स के
सहयात्री खोजती है
झिलमिल
फुलझडी
हस्तक्षेप करती है
रेत वह समुद्र ही
गर्म हवाओं से
पिघल कर
रेगिस्तान
सूखी नदिओं में
बहने लगता है
बढ़ना चाहता
हिमालय की तरफ
अपनी आँखों को
बर्फ से
ठण्डा जो करना है
उसे
बर्फ
हो जाना है
लेकिन
अमलतास के फूल तो
समुद्र को पाना चाहते हैं
रेत
वह
समुद्र ही तो है
पिघल कर
रेगिस्तान
सूखी नदिओं में
बहने लगता है
बढ़ना चाहता
हिमालय की तरफ
अपनी आँखों को
बर्फ से
ठण्डा जो करना है
उसे
बर्फ
हो जाना है
लेकिन
अमलतास के फूल तो
समुद्र को पाना चाहते हैं
रेत
वह
समुद्र ही तो है
अव्यय रुद्र: का स्तवन
इतनी दक्षता
स्वयं संपृक्त करता है
किसी लय पर
कहीं न कहीं
उस परोक्ष का अवगान
वृथा नहीं होती
वरेण्य पितरों की उपासना
स्वर्जित अनुभूतियों के सहारे
भस्मवत लोक दर्शन
आखिर
कितनी लम्बी है डोर
निरंतर आने जाने की कहानी
प्रतिकृतियों के पार
फैले कोहरे को मथ
फिर नये
नेत्रों को खोजने की लालसा
कहाँ केन्द्रित वह
धूप-छाँव
उत्पन करने वाला
महाभूत
अनुरक्तित ओज़
कहाँ वह
प्रक्षालित
स्वयं संवेध
स्वयं संपृक्त करता है
किसी लय पर
कहीं न कहीं
उस परोक्ष का अवगान
वृथा नहीं होती
वरेण्य पितरों की उपासना
स्वर्जित अनुभूतियों के सहारे
भस्मवत लोक दर्शन
आखिर
कितनी लम्बी है डोर
निरंतर आने जाने की कहानी
प्रतिकृतियों के पार
फैले कोहरे को मथ
फिर नये
नेत्रों को खोजने की लालसा
कहाँ केन्द्रित वह
धूप-छाँव
उत्पन करने वाला
महाभूत
अनुरक्तित ओज़
कहाँ वह
प्रक्षालित
स्वयं संवेध
लेबल:
अमित कल्ला,
अव्यय रुद्र: का स्तवन,
कविता
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
ले उडी
कहकर
कुछ शब्द
कमल की पंखुरिओं से
झरते
समय को
कथा सी
ले उडी
नहीं
संभलता
उससे
समय
अब तो सिर्फ
निशाना लगाती है
चिडिया
शाख दर शाख
हरा जोबन चढाती है
कुछ शब्द
कमल की पंखुरिओं से
झरते
समय को
कथा सी
ले उडी
नहीं
संभलता
उससे
समय
अब तो सिर्फ
निशाना लगाती है
चिडिया
शाख दर शाख
हरा जोबन चढाती है
शब्द या अर्थ
शब्द
या
अर्थ
युगानुयुग
दीखती
आकाशगंगा
नया कुल
नया गोत्र
पृथ्वी के दूसरी ओर
अंतस के अनंत गर्भ में
बंद आँखों से
देवशिल्पी
विजया के अक्षरों को
स्वयम्भू की
सिद्ध विद्यायें बनाता है
या
अर्थ
युगानुयुग
दीखती
आकाशगंगा
नया कुल
नया गोत्र
पृथ्वी के दूसरी ओर
अंतस के अनंत गर्भ में
बंद आँखों से
देवशिल्पी
विजया के अक्षरों को
स्वयम्भू की
सिद्ध विद्यायें बनाता है
पूर्ण होने दो
पूर्ण
होने दो
रिक्तता
दिगंत्व्यापी विस्तार में
नये दृश्य बनने दो
निराधार है लड़ना
अग्निशिखाओं से
जटाओं से
रिस-रिसकर जो
मशनों की भस्म
बन जाती
आप ही
खींचती
अपना स्वामी
मरुथल में
खामोशी से धर दबोचती है
मुश्किल है
बहुत मुश्किल
झेलपाना
हज़ार सूर्यों को
वृथा ही
प्रायोजित लोक में
नहीं बुनी जाती
रिश्तों की चादर
जहाँ
सूर्यास्त और
सूर्योदय के बीच
नहीं रुकने देते
वे
इक पल भी
अधिक
किसी
शब्द को
पूर्ण
होने दो
रिक्तता
होने दो
रिक्तता
दिगंत्व्यापी विस्तार में
नये दृश्य बनने दो
निराधार है लड़ना
अग्निशिखाओं से
जटाओं से
रिस-रिसकर जो
मशनों की भस्म
बन जाती
आप ही
खींचती
अपना स्वामी
मरुथल में
खामोशी से धर दबोचती है
मुश्किल है
बहुत मुश्किल
झेलपाना
हज़ार सूर्यों को
वृथा ही
प्रायोजित लोक में
नहीं बुनी जाती
रिश्तों की चादर
जहाँ
सूर्यास्त और
सूर्योदय के बीच
नहीं रुकने देते
वे
इक पल भी
अधिक
किसी
शब्द को
पूर्ण
होने दो
रिक्तता
तथास्तु
अहिल्या सी
पल-पल
प्रतीक्षा करती,
बूंद-बूंद
स्पर्श
पहचान जाती है
गुफाएँ
छिपा लेती
अपना गर्भ
छिपा लेती हैं
"तथास्तु"
वरदान
पल-पल
प्रतीक्षा करती,
बूंद-बूंद
स्पर्श
पहचान जाती है
गुफाएँ
छिपा लेती
अपना गर्भ
छिपा लेती हैं
"तथास्तु"
वरदान
मुझे भी कुछ
मुझे भी
सिखला दो
उड़ना,
पंख लगा
धकेल दो
आज
होड़ लगी है
लगन लगी है,
हाथों में
दे दो कमंडल
गले में पहन
शिवलिंग
बजाता रहूँ बस
डमरू डम-डम
आपनी सी
आँखे दे दो,
बना दो
जंगम
सिखला दो
मुझे भी
कोई
मंत्र
सिखला दो
उड़ना,
पंख लगा
धकेल दो
आज
होड़ लगी है
लगन लगी है,
हाथों में
दे दो कमंडल
गले में पहन
शिवलिंग
बजाता रहूँ बस
डमरू डम-डम
आपनी सी
आँखे दे दो,
बना दो
जंगम
सिखला दो
मुझे भी
कोई
मंत्र
देखते देखते
देखते
देखते
बदल जाते
नेत्र,
रेशम सा
पतला
पड़ने लगता
जल,
देर-सवेर
गीली माटी
छाप लेती
पगतलियाँ,
चुपके से
ढक देती उन्हें
बरसती रात में
यूँ हीं
देखते
देखते
देखते
बदल जाते
नेत्र,
रेशम सा
पतला
पड़ने लगता
जल,
देर-सवेर
गीली माटी
छाप लेती
पगतलियाँ,
चुपके से
ढक देती उन्हें
बरसती रात में
यूँ हीं
देखते
देखते
गुरुवार, 24 सितंबर 2009
कुछ दाने मकई के
अब क्या
कहना उससे
जो भूल चुका
अब तो
बैठा रहता है
इबादतखाने में
बुलाता
अपने खुदा को
बिखेर
कुछ दाने
मकई के
कहना उससे
जो भूल चुका
अब तो
बैठा रहता है
इबादतखाने में
बुलाता
अपने खुदा को
बिखेर
कुछ दाने
मकई के
खोजते रहो
सत्य
दीखता नहीं
सुनाई भी नहीं देता
लिखा जाता होगा
शायद
रहता होगा
सहस्त्रों निवेष्टों मध्य
बस यथाशक्ति
खोजते रहो
खोजते रहो उसे
निक्षिप्त शब्दावलियों में
कहीं
दीखता नहीं
सुनाई भी नहीं देता
लिखा जाता होगा
शायद
रहता होगा
सहस्त्रों निवेष्टों मध्य
बस यथाशक्ति
खोजते रहो
खोजते रहो उसे
निक्षिप्त शब्दावलियों में
कहीं
नाम तो कागजों पर
चेहरे
याद रहते हैं
नाम अक्सर भूल जाता हूँ
नाम तो
कागजों पर
लेकिन चेहरे
कहाँ
खोजो तो ज़रा
याद रहते हैं
नाम अक्सर भूल जाता हूँ
नाम तो
कागजों पर
लेकिन चेहरे
कहाँ
खोजो तो ज़रा
जोगन का जोबन
चुरा
जोगन का जोबन
रंग डाला
सुनहरा रंग
खुद ने
ओढ़ी है
काली कमली
अब क्या कहूँ
उससे ,
आते ही
कमंडल में
हो जाता
जो
गंगाजल
जोगन का जोबन
रंग डाला
सुनहरा रंग
खुद ने
ओढ़ी है
काली कमली
अब क्या कहूँ
उससे ,
आते ही
कमंडल में
हो जाता
जो
गंगाजल
आकाश थामता
नीला जल
थामता
पर्वत को,
पर्वत
आकाश थामता,
बदलता है
कितने रूप वह
भीतर की
मंथर
कल्पनाओं को
बहलाने के लिए .
थामता
पर्वत को,
पर्वत
आकाश थामता,
बदलता है
कितने रूप वह
भीतर की
मंथर
कल्पनाओं को
बहलाने के लिए .
सोमवार, 21 सितंबर 2009
कोई भेद बात नहीं
फिर
अभिमुख हो
अंग अंग
गुच्छा गुच्छा
शुभ होता है
कोई
भेद बात नहीं
देस देस
बादल बादल
कही अनकही
पूर्ण पाठ रटता है
कैसा कठोर
कोलाहल में
शीतलता मथता
कस्तूरी मृग सा
पर्वत पर्वत
जगमग
जोबन चखता
कहीं दूर
वह लीन तपस्वी
उत्सव अनबुझ रचता
समागमन संकेतों के
विलय अर्थ खोजता
अभिमुख हो
अंग अंग
गुच्छा गुच्छा
शुभ होता है
कोई
भेद बात नहीं
देस देस
बादल बादल
कही अनकही
पूर्ण पाठ रटता है
कैसा कठोर
कोलाहल में
शीतलता मथता
कस्तूरी मृग सा
पर्वत पर्वत
जगमग
जोबन चखता
कहीं दूर
वह लीन तपस्वी
उत्सव अनबुझ रचता
समागमन संकेतों के
विलय अर्थ खोजता
रह रह कर गुज़र जाता
रह - रह कर
गुज़र जाता
सहसा
वर सुंदरी के स्वप्न सा
सब कुछ
भीतर ही भीतर
आखिर किसे
निर्बन्ध करती
स्वर्णमणि की परछाईं
पहचानता कौन
उपासनाओं को
बारम्बार कहता बुनता
रंगबिरंगा ताना-बाना
किसकी खातिर
अहाते तक रख्खे जाते कदम
किसके लिए
दोहराये जाते मंदस्वर
किसके माथे मढा जाता
एकांतिक आलिंगन
नहीं पकड़ में आता
रह रह कर गुज़र जाता
गुज़र जाता
सहसा
वर सुंदरी के स्वप्न सा
सब कुछ
भीतर ही भीतर
आखिर किसे
निर्बन्ध करती
स्वर्णमणि की परछाईं
पहचानता कौन
उपासनाओं को
बारम्बार कहता बुनता
रंगबिरंगा ताना-बाना
किसकी खातिर
अहाते तक रख्खे जाते कदम
किसके लिए
दोहराये जाते मंदस्वर
किसके माथे मढा जाता
एकांतिक आलिंगन
नहीं पकड़ में आता
रह रह कर गुज़र जाता
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
कोयले सा
कितनी आँखों से
देखा
अतीत
ठोस मायाजाल
कोई और है
समय सा
स्वछन्द
अर्थ सा
अहर्निश गतिशील
निरुद्देश्य ही नहीं
बहती नदी
तराशती शब्द
स्वेदकण सी
अवचेतन
भावशून्य
बनाता है निमित्त
महज़ एक है
जो लेता सन्यास
कोयले सा
देखा
अतीत
ठोस मायाजाल
कोई और है
समय सा
स्वछन्द
अर्थ सा
अहर्निश गतिशील
निरुद्देश्य ही नहीं
बहती नदी
तराशती शब्द
स्वेदकण सी
अवचेतन
भावशून्य
बनाता है निमित्त
महज़ एक है
जो लेता सन्यास
कोयले सा
महानिद्रा की प्यास
उसी आभा के
इर्दगिर्द
कभी पानी,
कभी कागज़,
कभी आलाम्बित,
कभी आश्वस्थ,
कभी अधर में तैरता
तो
कभी देवताओं के स्वप्न खेवता है,
किसी आज़माये नुस्खें सा
यहाँ वहाँ का उजाला
बटोर लेता,
परमपुरुष पुष्पदंत
कुछ खास अर्थों के साथ
तिनका तिनका
शून्यता का व्यूह बिलोह
विमोहित सृष्टि के
आदिम रिवाजों पर
नसीहत फरमाते हैं
हथेली भर धूप ले
महानिद्रा की
प्यास
बुझाते हैं
इर्दगिर्द
कभी पानी,
कभी कागज़,
कभी आलाम्बित,
कभी आश्वस्थ,
कभी अधर में तैरता
तो
कभी देवताओं के स्वप्न खेवता है,
किसी आज़माये नुस्खें सा
यहाँ वहाँ का उजाला
बटोर लेता,
परमपुरुष पुष्पदंत
कुछ खास अर्थों के साथ
तिनका तिनका
शून्यता का व्यूह बिलोह
विमोहित सृष्टि के
आदिम रिवाजों पर
नसीहत फरमाते हैं
हथेली भर धूप ले
महानिद्रा की
प्यास
बुझाते हैं
सूर्यकांतमणि का इंतजार
रह-रह कर
गुजर जाता
पकड़ में नहीं आता
सहसा
वर-सुन्दरी के
स्वप्न सा
भीतर ही भीतर,
यादों की तमाम तसीरें
उस एकांतिक
आलिंगन के साथ
दिशाओं के अहातों तक
रख देती कदम,
रंगबिरंगे ताने-बाने से
जुटाती
लिपिबद्ध
मन्द स्वरों के
अर्थ,
अपने
आवरण के साथ
साँस दर साँस
टुकड़े टुकड़े हो
पल-पल
कैसे निभता
सूर्यकांतमणि का
इंतजार
गुजर जाता
पकड़ में नहीं आता
सहसा
वर-सुन्दरी के
स्वप्न सा
भीतर ही भीतर,
यादों की तमाम तसीरें
उस एकांतिक
आलिंगन के साथ
दिशाओं के अहातों तक
रख देती कदम,
रंगबिरंगे ताने-बाने से
जुटाती
लिपिबद्ध
मन्द स्वरों के
अर्थ,
अपने
आवरण के साथ
साँस दर साँस
टुकड़े टुकड़े हो
पल-पल
कैसे निभता
सूर्यकांतमणि का
इंतजार
लेबल:
अमित कल्ला,
कविता,
सूर्यकांतमणि का इंतजार
नामकरण सी डुबकियाँ
छिपाती
अपना दुःख
टटोल टटोल कर
हथेलियाँ
आप चौकन्नी,
कैसे कोई
विरोध करेगा,
औदुम्बर वृक्ष का
अकारण ही कसौटी कसेगा,
झूटे लगते उलटते दांव
मोह के आक्षेप जैसे
क्या
कभी उल्लेख होता है
प्रतिज्ञा में बंधे
एक एक दिवस का
पम्पासरोवर पर पहरा देती
उन परछाइयों का,
अविकारी नियंता की
दृष्टी की आस में
नामकरण सी डुबकियाँ
लगालगाकर
बारम्बार
खोजती जो
मूल देह अपनी
अपना दुःख
टटोल टटोल कर
हथेलियाँ
आप चौकन्नी,
कैसे कोई
विरोध करेगा,
औदुम्बर वृक्ष का
अकारण ही कसौटी कसेगा,
झूटे लगते उलटते दांव
मोह के आक्षेप जैसे
क्या
कभी उल्लेख होता है
प्रतिज्ञा में बंधे
एक एक दिवस का
पम्पासरोवर पर पहरा देती
उन परछाइयों का,
अविकारी नियंता की
दृष्टी की आस में
नामकरण सी डुबकियाँ
लगालगाकर
बारम्बार
खोजती जो
मूल देह अपनी
पूरब दिशा का सेनानी
हज़ार अनुभव
सदैव
भीतर ही भीतर
किसका अधिकार
स्मृतिरूपी भीगी देह पर
ऐसा फैनिल
मानो ज्वार ,
निग्रही आँखे
अचानक गलने लगती हैं
निरुत्तर
रह जाता
सरोवर भी,
कितने ही
कन्धों से गुजरता
पराजय का परिचय
ठहर जाता
महाद्वार पर
इक-इक पल बाद
इक-आध
वचन कहता
डबडबाये नेत्रों के
साये में
अपनी उंगलिओं से
महसूस करता
रेत में छिपी
चिनगारियाँ,
कैसे
कुल देवताओं से
क्षेत्रवनवास का
शुभाशीर्वाद चाहता
कैसे
पहली बार
किसी आँचल में
पनहा लेता
हिचकोले देने वाला
पूरब दिशा का
सेनानी
सदैव
भीतर ही भीतर
किसका अधिकार
स्मृतिरूपी भीगी देह पर
ऐसा फैनिल
मानो ज्वार ,
निग्रही आँखे
अचानक गलने लगती हैं
निरुत्तर
रह जाता
सरोवर भी,
कितने ही
कन्धों से गुजरता
पराजय का परिचय
ठहर जाता
महाद्वार पर
इक-इक पल बाद
इक-आध
वचन कहता
डबडबाये नेत्रों के
साये में
अपनी उंगलिओं से
महसूस करता
रेत में छिपी
चिनगारियाँ,
कैसे
कुल देवताओं से
क्षेत्रवनवास का
शुभाशीर्वाद चाहता
कैसे
पहली बार
किसी आँचल में
पनहा लेता
हिचकोले देने वाला
पूरब दिशा का
सेनानी
अनागत काल से
अनागत
काल से
किसी आलवक यक्ष सा
परिज्ञात होता है,
संचारी
अन्धायी बदरिया जैसा
कहते हैं
यह पर्वत
निगल जाता,
निरंध
कौतूहल मचा
भींच लेता
असल सत्य
कोरित कर
अपना अहंकार
पूर्वागमन से पूर्व ही
नवीन इषुधी
पाना चाहता,
अपनी
वृति से भिन्न
छूकर एकाकी मौन
स्मरण कर
कुम्भ के जन्म की कथा
ठिठुरती साँझ के
ठौर ठिकाने की बात करता है
अनागत काल से
काल से
किसी आलवक यक्ष सा
परिज्ञात होता है,
संचारी
अन्धायी बदरिया जैसा
कहते हैं
यह पर्वत
निगल जाता,
निरंध
कौतूहल मचा
भींच लेता
असल सत्य
कोरित कर
अपना अहंकार
पूर्वागमन से पूर्व ही
नवीन इषुधी
पाना चाहता,
अपनी
वृति से भिन्न
छूकर एकाकी मौन
स्मरण कर
कुम्भ के जन्म की कथा
ठिठुरती साँझ के
ठौर ठिकाने की बात करता है
अनागत काल से
सोमवार, 14 सितंबर 2009
तीर्थ हो जाने का विधान
कहते हैं
माया के भीतर कि माया
नीलोत्पल कि पंखुरी में
रहती है
धाता विधाता सी
परिधियों के पार
तर्क से अतीत
अकर्म कि गाथा से हामी भर
सम्भोधित सत्य के सहारे
अनादि सिद्ध विस्तीर्ण
वामदेव के संग
अपना
भव
सजा कर
व्याख्यायित करती है
अपनी भाव भूमि,
पारियात्र पर्वत
जहाँ
युगानुयुग
संभावनाओं के सोपान
तराशते चुनौतियाँ,
पंक्तियों के विन्यास
खेलते
विरूपण लुकाछिपी
आखिर
व्यपक है उनका अपना
सुनहरा रुपहला आकाश
जीवन कि रीत
और
माया के भीतर कि माया का
तीर्थ हो जाने का विधान
माया के भीतर कि माया
नीलोत्पल कि पंखुरी में
रहती है
धाता विधाता सी
परिधियों के पार
तर्क से अतीत
अकर्म कि गाथा से हामी भर
सम्भोधित सत्य के सहारे
अनादि सिद्ध विस्तीर्ण
वामदेव के संग
अपना
भव
सजा कर
व्याख्यायित करती है
अपनी भाव भूमि,
पारियात्र पर्वत
जहाँ
युगानुयुग
संभावनाओं के सोपान
तराशते चुनौतियाँ,
पंक्तियों के विन्यास
खेलते
विरूपण लुकाछिपी
आखिर
व्यपक है उनका अपना
सुनहरा रुपहला आकाश
जीवन कि रीत
और
माया के भीतर कि माया का
तीर्थ हो जाने का विधान
लेबल:
अमित कल्ला,
कविता,
तीर्थ हो जाने का विधान
अशेष स्मरण
अशेष का
स्मरण कर
भस्मीभूत
आवाहक सूर्य,
निरुद्देश्य रोके गए
मूर्तिमान मेघों को
मुक्त करता है,
स्वीकार्य सीमा तक
अतलतल हलचल का
अतुल्य भागीदार बन,
स्वछंद संपादित
सन्यास का संकल्प ले
आराधना में डूबी
निर्झरा को
भैरव मंत्र
देता है
अनुगम कर
सिद्धहस्त रूपाकारों का
अपराजित धाराओं कि विशाल
भुजाएँ पकड़
अंतहीन
सुखकारक
यथार्थ को
बारम्बार बुलाता है
स्मरण कर
भस्मीभूत
आवाहक सूर्य,
निरुद्देश्य रोके गए
मूर्तिमान मेघों को
मुक्त करता है,
स्वीकार्य सीमा तक
अतलतल हलचल का
अतुल्य भागीदार बन,
स्वछंद संपादित
सन्यास का संकल्प ले
आराधना में डूबी
निर्झरा को
भैरव मंत्र
देता है
अनुगम कर
सिद्धहस्त रूपाकारों का
अपराजित धाराओं कि विशाल
भुजाएँ पकड़
अंतहीन
सुखकारक
यथार्थ को
बारम्बार बुलाता है
बीती रात से पहले
नहीं
जानता था
बीती रात से पहले
कि
गाँठ
किसे कहते हैं
शायद
जीवन लगेगा
खोलने में
जिसे अब
जानता था
बीती रात से पहले
कि
गाँठ
किसे कहते हैं
शायद
जीवन लगेगा
खोलने में
जिसे अब
दुःख , विछोह का
सुनहरी
सतह पर लिखे
काले काले अक्षर
यकीनन
सौभाग्य परोसते हैं
अपनी सलवटों को समेटकर
कितनी
सहजता से भुला देते वे
दुःख ,
विछोह का
सतह पर लिखे
काले काले अक्षर
यकीनन
सौभाग्य परोसते हैं
अपनी सलवटों को समेटकर
कितनी
सहजता से भुला देते वे
दुःख ,
विछोह का
मनहट कौन साधता,
आखिर
किस पर है
भरोसा,
अधरस्ते में छूट जाते
कुछ नये,
कुछ पुराने,
कुछ ओस में नहाये,
कुछ प्रार्थनाओं,
कुछ प्रतिघातों में,
कुछ पास,
कुछ दूर,
कुछ दुबके दुबके
अंतर्मन में,
कहाँ है
अजरावर अनजानी काया,
अखंड लय विन्यास ,
सूर्यरथ ,
रंगमहल के राजा
कौन
रहता राखता
किसके शब्द
कहे सुने जाते
कौन
खीच लाता उस दृग तक
कौन
कागज़ के दीप जलाता
मनहट कौन साधता,
आवारा बादल
या
अथाह आलिंगन
आखिर
किस पर है
भरोसा
किस पर है
भरोसा,
अधरस्ते में छूट जाते
कुछ नये,
कुछ पुराने,
कुछ ओस में नहाये,
कुछ प्रार्थनाओं,
कुछ प्रतिघातों में,
कुछ पास,
कुछ दूर,
कुछ दुबके दुबके
अंतर्मन में,
कहाँ है
अजरावर अनजानी काया,
अखंड लय विन्यास ,
सूर्यरथ ,
रंगमहल के राजा
कौन
रहता राखता
किसके शब्द
कहे सुने जाते
कौन
खीच लाता उस दृग तक
कौन
कागज़ के दीप जलाता
मनहट कौन साधता,
आवारा बादल
या
अथाह आलिंगन
आखिर
किस पर है
भरोसा
बारूद का इत्र छिडक
बूढा समय
सफ़ेद रंग पर
आ गिरता
लम्बे-लम्बे दरख्तों कि
खबर ले
पतले डंडे से
मछली
फूल
मशाल
बनाता है
वहीँ
कुछ हाथ
बहुत दूर से
मौत से आधिक धुंधला
मकड़जाल बुनते
बारूद का इत्र छिडक
बुलबुल पर
छीन लेते हैं
उसका बसेरा
सफ़ेद रंग पर
आ गिरता
लम्बे-लम्बे दरख्तों कि
खबर ले
पतले डंडे से
मछली
फूल
मशाल
बनाता है
वहीँ
कुछ हाथ
बहुत दूर से
मौत से आधिक धुंधला
मकड़जाल बुनते
बारूद का इत्र छिडक
बुलबुल पर
छीन लेते हैं
उसका बसेरा
कोई खलील
कोई
खलील
अराक के
जंगलों में
पश्मीना ओढे
सत्यासत्य से
जूझते
इब्राहिम के
आगमन कि प्रतीक्षा करता है
बैजनी छठा
बिखर जाती है
सजीली फुलवारी पर
पलटकर
अंजान
बारूद के गंध सी
खलील
अराक के
जंगलों में
पश्मीना ओढे
सत्यासत्य से
जूझते
इब्राहिम के
आगमन कि प्रतीक्षा करता है
बैजनी छठा
बिखर जाती है
सजीली फुलवारी पर
पलटकर
अंजान
बारूद के गंध सी
एक एक को वर
मन ही मन
सतरंगी सपने
एक एक को वर,
बूढी परछाई
मखमली कहानी सुनाती है,
पंख वाला मनुष्य जहाँ
खोज लेता
अपना मुकाम,
देखा...
कैसा अवसर के अनुकूल
वह अश्वारोही
दशरथ पर्वत से उठती
हवाएँ निगलता है,
वस्तुतः
इतना आसान
नहीं होता
दूरस्थ नक्षत्र
प्रभावित करना
सतरंगी सपनों को
दिग्विजय का
वर देना
मन ही मन
सतरंगी सपने
एक एक को वर,
बूढी परछाई
मखमली कहानी सुनाती है,
पंख वाला मनुष्य जहाँ
खोज लेता
अपना मुकाम,
देखा...
कैसा अवसर के अनुकूल
वह अश्वारोही
दशरथ पर्वत से उठती
हवाएँ निगलता है,
वस्तुतः
इतना आसान
नहीं होता
दूरस्थ नक्षत्र
प्रभावित करना
सतरंगी सपनों को
दिग्विजय का
वर देना
मन ही मन
कौडियों सा पलटता
कौडियों सा पलटता
चाहे न चाहे
असंगता
क्या मालूम होता
काल गणित
निकलकर भागते
पहुचते प्रतिष्ठाओं के पार
चहचहाती चिडिया
सीख ही लेती
रहस्यमयी विद्या,
पीले रंग में नहाती
शिशिर ऋतु
कल्पनाओं के आंकलन में
भव बाधा लांघना चाहती,
दमकता पहाड़
आप ही जान लेता
देता संकेत
उपमाओं के
क्या
कहीं समीप
रह पाती अवस्थाएँ
सुनिश्चित है जहाँ
गुलदाउदी का वनवास
अधूरा अधूरा रहने कि चाह
हाँ
अभी समय है
वृतियों के खंड-खंड होने में
हाँ
अभी समय है
सुरजमुखी को
महासिद्ध होने में
चाहे न चाहे
असंगता
क्या मालूम होता
काल गणित
निकलकर भागते
पहुचते प्रतिष्ठाओं के पार
चहचहाती चिडिया
सीख ही लेती
रहस्यमयी विद्या,
पीले रंग में नहाती
शिशिर ऋतु
कल्पनाओं के आंकलन में
भव बाधा लांघना चाहती,
दमकता पहाड़
आप ही जान लेता
देता संकेत
उपमाओं के
क्या
कहीं समीप
रह पाती अवस्थाएँ
सुनिश्चित है जहाँ
गुलदाउदी का वनवास
अधूरा अधूरा रहने कि चाह
हाँ
अभी समय है
वृतियों के खंड-खंड होने में
हाँ
अभी समय है
सुरजमुखी को
महासिद्ध होने में
शब्द सुगंध में...
आते आते
कहीं गुम
कुछ
अनभिव्यक्त रह जाता है,
आँखे,
चकोर बन
पीना चाहती
आपनी ही बिछाई रे़त पर
लहर सी पसर
शब्द सुगंध में...
करती
अहंकार !
विसर्जन
कहीं गुम
कुछ
अनभिव्यक्त रह जाता है,
आँखे,
चकोर बन
पीना चाहती
आपनी ही बिछाई रे़त पर
लहर सी पसर
शब्द सुगंध में...
करती
अहंकार !
विसर्जन
चिरंतन श्यामल
चिरंतन
श्यामल
इतनी आकर्षक
कल्पनाओं से अधिक शक्तिशाली
ह्मूनसांग कि आस्था सी
क्या
यही होती
अविद्या पर विजय,
पारदर्शी पर्वतीय श्रंखलाएं
इक ब इक
सवालिया निशान गढ़ती हैं,
खड़े- खड़े खोल
अपनी गठरी
समतल अग्नि को
धधकाती
प्रवाहमान तरुणाई भी
अनगिनत पुष्पों में
डुबकियाँ लगा
एहतियातन
उस
समरूप
कलंदर के
कलेवर
देखती है
चिरंतन
श्यामल
श्यामल
इतनी आकर्षक
कल्पनाओं से अधिक शक्तिशाली
ह्मूनसांग कि आस्था सी
क्या
यही होती
अविद्या पर विजय,
पारदर्शी पर्वतीय श्रंखलाएं
इक ब इक
सवालिया निशान गढ़ती हैं,
खड़े- खड़े खोल
अपनी गठरी
समतल अग्नि को
धधकाती
प्रवाहमान तरुणाई भी
अनगिनत पुष्पों में
डुबकियाँ लगा
एहतियातन
उस
समरूप
कलंदर के
कलेवर
देखती है
चिरंतन
श्यामल
रविवार, 13 सितंबर 2009
भागती रात को
किसे
बांधना आता
भागती रात को
सिवाय
आलोकिक
नेत्रों के तुम्हारे !
कालिन्दी भी
अधबीच ठहर जाती
संगृहीत करती
तुम्हारी आँखों से
रिसता
काजल
बांधना आता
भागती रात को
सिवाय
आलोकिक
नेत्रों के तुम्हारे !
कालिन्दी भी
अधबीच ठहर जाती
संगृहीत करती
तुम्हारी आँखों से
रिसता
काजल
पानी में पानी
पानी पर तैरती
डोंगी को
छूता बुलबुला
दे जाता
गोपनीय ज्ञान
लहरों कि मौजों का
पानी में
पानी हो जाने का
डोंगी को
छूता बुलबुला
दे जाता
गोपनीय ज्ञान
लहरों कि मौजों का
पानी में
पानी हो जाने का
कभी कम कभी ज्यादा
कितनी
लम्बी होती जाती
तिरते स्वप्नों कि
छायाँ
अकारण ही नहीं
ख़बरदार करता है,
आसमान का टुकडा
तितली सा
अर्थ बदल,
गर्भ के अहाते तक
देख सकता
आकार
भव का
कभी कम
कभी ज्यादा
लम्बी होती जाती
तिरते स्वप्नों कि
छायाँ
अकारण ही नहीं
ख़बरदार करता है,
आसमान का टुकडा
तितली सा
अर्थ बदल,
गर्भ के अहाते तक
देख सकता
आकार
भव का
कभी कम
कभी ज्यादा
दो फाँक
दो फाँक
नज़र आती
चट्टान,
भुरभुरा जाता
ख़्वाब गडरिये का,
पानी
लहर लहर चढ़ता है,
लौटती हवा सिद्ध करती
अपनी अहमियत
कई कई जन्मों तक
गहरी राख़ जैसी
आप बनती
आप ही बिखरती है
नशीले रंगों में
रची बुनी
दिशाएं,
तमाम दावेदारी के
बावजूद
उन्ही पुतलिओं के
इर्दगिर्द
अपना
भुवन तलाशती है
जहाँ
नज़र आती
चट्टान,
भुरभुरा जाता
ख़्वाब गडरिये का,
पानी
लहर लहर चढ़ता है,
लौटती हवा सिद्ध करती
अपनी अहमियत
कई कई जन्मों तक
गहरी राख़ जैसी
आप बनती
आप ही बिखरती है
नशीले रंगों में
रची बुनी
दिशाएं,
तमाम दावेदारी के
बावजूद
उन्ही पुतलिओं के
इर्दगिर्द
अपना
भुवन तलाशती है
जहाँ
दो फाँक
नज़र आती
चट्टान
कौन गंगाजली उठाये
कौन सुनेगा
अश्वगंधा और रक्तचंदन
कि कथा
कौन देखेगा
तिस्ता के तिलिस्म को
कौन करेगा
नागलोक के
अंतस्थल कि यात्रा
कौन सीखेगा
चंद्रमा से कलाएं
कौन जानेगा
पुरातन का कारुण्य
आखिर
कौन गंगाजली
उठाये
भार भरे लोक कि सुल्तानी छोड़
दण्डीस्वामी का संग करेगा
या फिर
वर्णित वाक्यों को
अनसुना कर
केवट सा
प्रतीतिक बेडा
पार लगाएगा
कौन
अश्वगंधा और रक्तचंदन
कि कथा
कौन देखेगा
तिस्ता के तिलिस्म को
कौन करेगा
नागलोक के
अंतस्थल कि यात्रा
कौन सीखेगा
चंद्रमा से कलाएं
कौन जानेगा
पुरातन का कारुण्य
आखिर
कौन गंगाजली
उठाये
भार भरे लोक कि सुल्तानी छोड़
दण्डीस्वामी का संग करेगा
या फिर
वर्णित वाक्यों को
अनसुना कर
केवट सा
प्रतीतिक बेडा
पार लगाएगा
कौन
दूसरे जैसे होने कि भाषा में
दूसरे जैसे होने कि भाषा में
तीसरी अवस्था
सचेतन
उदभासित व्याकुलता
धीमे धीमे कृत कृत वचन
बह बहकर
बचपन में लौट जाते
घिस घिसकर
नामचीन चाकू
संजीदगी से केवडे कि खुशबू चुराते हैं
रिमझिम
स्वर्णवर्षा भिगो देती
नरसिंह कवच
सरगमी परायण बाँच
आधभवानी, पंचानन
करते वनगमन
संभवत:
सबकुछ प्रतीकात्मक नहीं होता
नापतौल के दिया जाता गंगाजल
उच्चतम शिखर
लम्बी यात्राओं के
पग पकड़ लेता
और
तुम्हारा यथार्थ
चौकस मालिक होने का हुँकारा देता है
दूसरे जैसे होने कि भाषा में.
तीसरी अवस्था
सचेतन
उदभासित व्याकुलता
धीमे धीमे कृत कृत वचन
बह बहकर
बचपन में लौट जाते
घिस घिसकर
नामचीन चाकू
संजीदगी से केवडे कि खुशबू चुराते हैं
रिमझिम
स्वर्णवर्षा भिगो देती
नरसिंह कवच
सरगमी परायण बाँच
आधभवानी, पंचानन
करते वनगमन
संभवत:
सबकुछ प्रतीकात्मक नहीं होता
नापतौल के दिया जाता गंगाजल
उच्चतम शिखर
लम्बी यात्राओं के
पग पकड़ लेता
और
तुम्हारा यथार्थ
चौकस मालिक होने का हुँकारा देता है
दूसरे जैसे होने कि भाषा में.
अपने ही साहिब में पाता है
खोजता
पीड पुराणी
माथापच्ची कर
वैकुंट कि यात्रा कर आते हैं
सिलखडी पर कोर देते
मंत्रयोग
पंच से पंच का तात्पर्य
सिद्धांतों के संदेहों से पार
बांटकर सुनहरे बीज
दत्तचित्त हो
अंग और अंगी का
भेद बताते हैं,
कौन बडभागी
ब्रह्मज्ञान कि बात करता
गुदगुदाता
ज्वारभाटों को
विरह के बाणों को
नयनों में समा लेता,
आकाश पर मेघ ,
पृथ्वी पर जल ,
रहंट पर
कौतूहल
बिखेर देता,
अखंड ध्यान
लयलीन
अपने ही
साहिब में
पाता है
पीड पुराणी
माथापच्ची कर
वैकुंट कि यात्रा कर आते हैं
सिलखडी पर कोर देते
मंत्रयोग
पंच से पंच का तात्पर्य
सिद्धांतों के संदेहों से पार
बांटकर सुनहरे बीज
दत्तचित्त हो
अंग और अंगी का
भेद बताते हैं,
कौन बडभागी
ब्रह्मज्ञान कि बात करता
गुदगुदाता
ज्वारभाटों को
विरह के बाणों को
नयनों में समा लेता,
आकाश पर मेघ ,
पृथ्वी पर जल ,
रहंट पर
कौतूहल
बिखेर देता,
अखंड ध्यान
लयलीन
अपने ही
साहिब में
पाता है
खोजता
पीड पुराणी
नैनों का क्या
नैनों का क्या
हरसू
अस्वीकृत करते
खो देते
अपनी सुधबुध,
कहीं कोई बिरला
करता दीदार,
बजाता
हजूरी
रहमान कि
भव के
ताने-बाने से परे
सहती है
ज्वार पर ज्वार,
बहुत कुछ छिपाती है
छुई मुई
धडाधड
भांति- भांति के स्वर
कूच करते हैं,
खाली तुणीर भी
भाँप लेते
करतली
जायफल कि
मादकता में
डूबे
यमलोक के
पहरेदार
ठहरा कर
यौवन कि धूप घडी,
चुपके से
चुरा
लेते हैं
रचाबसा
पानी का दुर्ग
नैनों का क्या
हरसू
अस्वीकृत करते
करतब करतार के
नैरन्तर्य
स्वीकारा गया सत्य,
चुपचाप ही पकड़ता है
बुन देता
रिश्तों के ताने- बाने में,
अक्सर
परखा भी जाता,
कहता
रहने दो उस रहस्य को
जहाँ दुबकी
जन्मजात अबोधता,
भीतर मन की चुप्पी
और एक स्वप्न के
साबुत रहने की चाह,
किसी शब्द संवाद सा
मुँह माँगा वरदान
न जाने कब से बहता
ये तीरथ का पानी,
न जाने कब से चलता
ये आवागमन का खेला,
न जाने कहाँ
प्रतिकृत होता है
अपनी चेतना के
सहारे
फिर देखता
करतब,
करतार के
नैरन्तर्य
स्वीकारा गया सत्य,
चुपचाप ही पकड़ता है
बुन देता
रिश्तों के ताने- बाने में,
अक्सर
परखा भी जाता,
कहता
रहने दो उस रहस्य को
जहाँ दुबकी
जन्मजात अबोधता,
भीतर मन की चुप्पी
और एक स्वप्न के
साबुत रहने की चाह,
किसी शब्द संवाद सा
मुँह माँगा वरदान
न जाने कब से बहता
ये तीरथ का पानी,
न जाने कब से चलता
ये आवागमन का खेला,
न जाने कहाँ
प्रतिकृत होता है
अपनी चेतना के
सहारे
फिर देखता
करतब,
करतार के
नैरन्तर्य
शनिवार, 12 सितंबर 2009
धसते पगों के साथ
कौन करेगा
जबीसाई
कब कहेगा
मेघ शब्द
यशोगान
इत्मीनान से
तेज़ करनी है
लौ
मशालों की
आप परिचित दृश्यों के साथ
समा जाना है
रे़त के समुद्र में
बहुश
बेमानी लगता
अपने अस्तित्व से अलग होना
मंडराती खामोशी में
धसते पगों के साथ
लम्बी-लम्बी ढलानों से
गुजरना
स्निग्ध चांदनी भी
जहाँ
चूभती है
नुकीले तीरों सी
इत्मीनान से
जबीसाई
कब कहेगा
मेघ शब्द
यशोगान
इत्मीनान से
तेज़ करनी है
लौ
मशालों की
आप परिचित दृश्यों के साथ
समा जाना है
रे़त के समुद्र में
बहुश
बेमानी लगता
अपने अस्तित्व से अलग होना
मंडराती खामोशी में
धसते पगों के साथ
लम्बी-लम्बी ढलानों से
गुजरना
स्निग्ध चांदनी भी
जहाँ
चूभती है
नुकीले तीरों सी
इत्मीनान से
उर्ध्वगमन
यकीनन
उर्ध्वगमन,
जन्मों-जन्मों से
निराहार
दिगंबर सा
इनकार नहीं करता
नरगिसी आभा में
कचनारों के पार
बारीक़ हुनर उन
कौंधती बिजलिओं से
चिंगारियाँ चुरा
अवसादों को स्वाहा करता है
वहीं
कठोर कवच में लेटा
बूढा कारतूस
सहज सिंगार कर
चिर स्थायी अम्बुज का
अन्तराल नापता
यकीनन
जन्मों-जन्मों से
वैसा ही
उर्ध्वगमन
उर्ध्वगमन,
जन्मों-जन्मों से
निराहार
दिगंबर सा
इनकार नहीं करता
नरगिसी आभा में
कचनारों के पार
बारीक़ हुनर उन
कौंधती बिजलिओं से
चिंगारियाँ चुरा
अवसादों को स्वाहा करता है
वहीं
कठोर कवच में लेटा
बूढा कारतूस
सहज सिंगार कर
चिर स्थायी अम्बुज का
अन्तराल नापता
यकीनन
जन्मों-जन्मों से
वैसा ही
उर्ध्वगमन
चुपचाप ही
चुपचाप
संभाल लो
अपने अपने
जंतर
धीमे स्वर में
बदल लेता बनावट
जादुई दस्तखत
ख़बरदार करता
उत्तरार्ध में बसे
सागवान के संग- संग
ठीक- ठीक जाना जाता
अपनी
सुगति के सहारे
शब्द का शब्द
दिवस का दिवस
रात की रात
मथता
जतन कर
सिंहासन पर काबिज
सूर्यसुता के जल से
काजल चुराता है
कितनी
सटीक लगती
पराजय की पुष्टि
कमाल की पंखुडियों से
चिपके अग्निरसायन सा
वशीभूत ,
क्या कहीं कोई
अवसर ,
बलभद्र ,
द्वारिका
सच पूछो तो
बिखरा स्पर्श
जयजयकार सा
कृतकार्य साबित होता है
कहीं
चुपचाप ही
संभाल लो
अपने अपने
जंतर
धीमे स्वर में
बदल लेता बनावट
जादुई दस्तखत
ख़बरदार करता
उत्तरार्ध में बसे
सागवान के संग- संग
ठीक- ठीक जाना जाता
अपनी
सुगति के सहारे
शब्द का शब्द
दिवस का दिवस
रात की रात
मथता
जतन कर
सिंहासन पर काबिज
सूर्यसुता के जल से
काजल चुराता है
कितनी
सटीक लगती
पराजय की पुष्टि
कमाल की पंखुडियों से
चिपके अग्निरसायन सा
वशीभूत ,
क्या कहीं कोई
अवसर ,
बलभद्र ,
द्वारिका
सच पूछो तो
बिखरा स्पर्श
जयजयकार सा
कृतकार्य साबित होता है
कहीं
चुपचाप ही
चित्ररथा के स्वप्न सा
परस्पर
प्रकृतिस्थ,
कभी
गहरे नीले रंग का
कल्पनालोक,
कभी
सूर्ख़ पीत तंत्र,
चित्ररथा के स्वप्न सा
सम्पूर्ण संभावित
एकाधिकार,
अपने ही
गर्भ को भेदकर
निर्मायक
उल्काओं सा प्रभामय
सुलोचनिय पिंड,
धवल रेखाओं में
काले त्रिबुज पर टिका
महावल के रंग में रंगा
दो चहरों वाला
जिस्म
खोजता है,
परस्पर
प्रकृतिस्थ,
कभी
गहरे नीले रंग का
कल्पनालोक,
कभी
सूर्ख़ पीत तंत्र,
चित्ररथा के स्वप्न सा
सम्पूर्ण संभावित
एकाधिकार,
अपने ही
गर्भ को भेदकर
निर्मायक
उल्काओं सा प्रभामय
सुलोचनिय पिंड,
धवल रेखाओं में
काले त्रिबुज पर टिका
महावल के रंग में रंगा
दो चहरों वाला
जिस्म
खोजता है,
परस्पर
लेबल:
अमित कल्ला,
कविता,
चित्ररथा के स्वप्न सा
साँची का सुनहरा सूरज
उत्सवी आवरणों से दूर
स्तूपों के सायों में
अपनी ही
शाखों के कन्धों पर
कश्तियाँ लादे
ब्रह्माण्ड के रहस्यों में
गोता लगाता है
अपने
घेरे को तोड़कर
निगलता है
कई मंज़र
कहीं अधिक
गहरा
बिंदु- बिंदु
बनाता है
बिम्ब
वेदिका पर टिका
ये
साँची का
सुनहरा सूरज
स्तूपों के सायों में
अपनी ही
शाखों के कन्धों पर
कश्तियाँ लादे
ब्रह्माण्ड के रहस्यों में
गोता लगाता है
अपने
घेरे को तोड़कर
निगलता है
कई मंज़र
कहीं अधिक
गहरा
बिंदु- बिंदु
बनाता है
बिम्ब
वेदिका पर टिका
ये
साँची का
सुनहरा सूरज
दिग्विजय की बातें
सिर्फ
प्रार्थनाओं के सहारे
शब्द से शब्द
रेखा से रेखा
नेत्र से नेत्र
पाबन्दियाँ
तरफदारी
अथवा
दिग्विजय की बातें
समय
ताकता
सही सही का
अर्थ खोजता
दो टूक
कहाँ लिपट जाता
कौन पहचान पाता
चटक रंगों के कोलाहल में
उन सयाने
ख्वाबों की
यात्राओं को
सिर्फ
प्रार्थनाओं के सहारे
प्रार्थनाओं के सहारे
शब्द से शब्द
रेखा से रेखा
नेत्र से नेत्र
पाबन्दियाँ
तरफदारी
अथवा
दिग्विजय की बातें
समय
ताकता
सही सही का
अर्थ खोजता
दो टूक
कहाँ लिपट जाता
कौन पहचान पाता
चटक रंगों के कोलाहल में
उन सयाने
ख्वाबों की
यात्राओं को
सिर्फ
प्रार्थनाओं के सहारे
नहीं जानता
नहीं
जानता
कहाँ खोजाता
शायद
इक सपना ही
मन में
रह जाता
अबूझा सा सवाल
कभी- कभी
संभल-संभलकर
कुछ इस तरह कहता
अपनी बोली
अपना पानी
अपना लोक-परलोक
फिर क्या
अपने वक़्त के साथ
अपना रास्ता स्वीकार लेता
उलझा-उलझा आकार
पूरा का पूरा वृक्ष
या मुट्ठी भर अनाज,
अपने आप ही भर जाती
वो नन्ही सी धारा
हर आहट के साथ
मुक्त होता इक
पहाड़ी तोरण
क्या कहते
खीचता कोई
दामन ऋतुओं का
नहीं जानता
मैने तो सिर्फ
उगता हुआ
काला सूर्य देखा है
जानता
कहाँ खोजाता
शायद
इक सपना ही
मन में
रह जाता
अबूझा सा सवाल
कभी- कभी
संभल-संभलकर
कुछ इस तरह कहता
अपनी बोली
अपना पानी
अपना लोक-परलोक
फिर क्या
अपने वक़्त के साथ
अपना रास्ता स्वीकार लेता
उलझा-उलझा आकार
पूरा का पूरा वृक्ष
या मुट्ठी भर अनाज,
अपने आप ही भर जाती
वो नन्ही सी धारा
हर आहट के साथ
मुक्त होता इक
पहाड़ी तोरण
क्या कहते
खीचता कोई
दामन ऋतुओं का
नहीं जानता
मैने तो सिर्फ
उगता हुआ
काला सूर्य देखा है
आकाश - पाताल के मध्य
उस आंशिक
सत्य के सहारे
करते
अज्ञात आवरणों का
विसर्जन,
अपनी ही ध्वनि में
अपने अंतर में
पूर्वकथा का स्मरण
आकाश - पाताल के मध्य
पर्यंक मुद्रा में
सौंदर्य से सजल
वह महावृक्ष
अधीर हो जाता है
समय समय पर
किसी उत्सव मूर्ति के
देशाटन सा
मनमाना वरदान देता
परिष्कृत वाक्य
जहाँ
निर्मल नीर सा
रुनझुन बावरा बन
आकारहीन
अंतर्मुख संयोग को
सौप देता,
महापथिक की
दृष्टी से उपजी
सिद्ध्मणि
आकाश - पाताल के मध्य
उस आंशिक
सत्य के सहारे
सत्य के सहारे
करते
अज्ञात आवरणों का
विसर्जन,
अपनी ही ध्वनि में
अपने अंतर में
पूर्वकथा का स्मरण
आकाश - पाताल के मध्य
पर्यंक मुद्रा में
सौंदर्य से सजल
वह महावृक्ष
अधीर हो जाता है
समय समय पर
किसी उत्सव मूर्ति के
देशाटन सा
मनमाना वरदान देता
परिष्कृत वाक्य
जहाँ
निर्मल नीर सा
रुनझुन बावरा बन
आकारहीन
अंतर्मुख संयोग को
सौप देता,
महापथिक की
दृष्टी से उपजी
सिद्ध्मणि
आकाश - पाताल के मध्य
उस आंशिक
सत्य के सहारे
लेबल:
अमित कल्ला,
आकाश - पाताल के मध्य,
कविता
शुक्रवार, 11 सितंबर 2009
लगातार
लगातार
अपने साथ ले जाता
कैसा लचकीला
ज़ार - ज़ार
बहुधा दिखाई देता
ताईरे - अर्श सा
सच
मोह लेता है
परिवास
जरणा जोगी बन
कागज़ के टुकड़े संग
गहरे समंदर की
यात्राओं पर निकल जाता
देखता
टकटकी लगा
उसी ध्रुव तारे को
बनाया जिसे
अपना इश्वर
लगातार
अपने साथ ले जाता
कैसा लचकीला
ज़ार - ज़ार
बहुधा दिखाई देता
ताईरे - अर्श सा
सच
मोह लेता है
परिवास
जरणा जोगी बन
कागज़ के टुकड़े संग
गहरे समंदर की
यात्राओं पर निकल जाता
देखता
टकटकी लगा
उसी ध्रुव तारे को
बनाया जिसे
अपना इश्वर
लगातार
ध्यान मग्न
कल
चले जायेंगे
धूनियों को छोड़
अस्थाई डेरे त्याग
प्रस्थान
गंतव्यों की ओर
शिप्रा
यथा ही बहेगी
जब तक
महाकाल रहेंगे
ध्यान मग्न
चले जायेंगे
धूनियों को छोड़
अस्थाई डेरे त्याग
प्रस्थान
गंतव्यों की ओर
शिप्रा
यथा ही बहेगी
जब तक
महाकाल रहेंगे
ध्यान मग्न
कैसी दुविधा
कैसी दुविधा
बुदबुदाता
छूना चाहता है
बेआवाज़ ही रख देता
हर रंग हर कहानी
कैसा
अकेला ही पाता
ऋत पर विजय
वैसे भी
किसे देखती
अन्दरुनी निगाहें
तह पर तह जमती जाती
सच
आग है निर्वसन
हाथ जोड़े , हिचकोले खाता
संगेमरमर पर
फिसलता है
यहाँ वहाँ के खेलों के बीच
कभी छू लेता
आकाशीय चेतस वर्षा
अक्षीय बंध संग
कैसी दुविधा
बुदबुदाता
छूना चाहता है
बेआवाज़ ही रख देता
हर रंग हर कहानी
कैसा
अकेला ही पाता
ऋत पर विजय
वैसे भी
किसे देखती
अन्दरुनी निगाहें
तह पर तह जमती जाती
सच
आग है निर्वसन
हाथ जोड़े , हिचकोले खाता
संगेमरमर पर
फिसलता है
यहाँ वहाँ के खेलों के बीच
कभी छू लेता
आकाशीय चेतस वर्षा
अक्षीय बंध संग
कैसी दुविधा
पलक - पलक अगहरूप
आखिर कौन
लौटता हैं वापस
उन धुरीओं के बीच ,
दिखाई पड़ता जहाँ
अंतर्मन का कौलाहल
निहितार्थ ही
अधूरा नहीं
छोड़ देता
जुलाहा ,
मृत्युजेता पवन के
आस्वादन का
ताना-बाना ,
हर इक शब्द में
उस
जागते अवधूत का
अविज्ञात
अध्याय हो जाता है
सामानांतर ही
ठहरा समय
विराट वृक्ष की ओट ले
मलई राग गाता ,
अर्धचंद्र ,
बसंत में डूबी देहर को
पंक्ति - पंक्ति मायारस
चखा
अनासक्त हो
जुगजुगाते तारे संग आँखे खोले
पलक - पलक
अगहरूप सा
बेखोफ़ ,
सीधे कदम रखने की
ज़हमत उठाता है
.
लौटता हैं वापस
उन धुरीओं के बीच ,
दिखाई पड़ता जहाँ
अंतर्मन का कौलाहल
निहितार्थ ही
अधूरा नहीं
छोड़ देता
जुलाहा ,
मृत्युजेता पवन के
आस्वादन का
ताना-बाना ,
हर इक शब्द में
उस
जागते अवधूत का
अविज्ञात
अध्याय हो जाता है
सामानांतर ही
ठहरा समय
विराट वृक्ष की ओट ले
मलई राग गाता ,
अर्धचंद्र ,
बसंत में डूबी देहर को
पंक्ति - पंक्ति मायारस
चखा
अनासक्त हो
जुगजुगाते तारे संग आँखे खोले
पलक - पलक
अगहरूप सा
बेखोफ़ ,
सीधे कदम रखने की
ज़हमत उठाता है
.
गुरुवार, 10 सितंबर 2009
हिये का बैरी
अजन्मे
स्वप्न को छूकर
निरंतर
लहर दर लहर
माटी के सिकोंरों में
बूढे सितारों संग
अकेला ही
तैरता
हिये का बैरी
वह...
चमचमाता पुखराज !
कैसा .
स्वप्न को छूकर
निरंतर
लहर दर लहर
माटी के सिकोंरों में
बूढे सितारों संग
अकेला ही
तैरता
हिये का बैरी
वह...
चमचमाता पुखराज !
कैसा .
दीर्घकाल तक
आसूरी
आवरणों के बाहर
दीर्घकाल तक
कुछ नया
न जाने कैसे
विश्वसृष्टि का संवाद
अनझिप ज्योति की
निजता लिए
कल्पित रंगों के रसायन में
घुलमिल जाता
माप - माप कर
सहजवृत्त अमूर्तन की
अंतरदृष्टि
सविषयी तत्वों के
स्फुरण संग
शाकम्बरी का
चेतन स्पर्श हो जाता है
दीर्घकाल तक .
आवरणों के बाहर
दीर्घकाल तक
कुछ नया
न जाने कैसे
विश्वसृष्टि का संवाद
अनझिप ज्योति की
निजता लिए
कल्पित रंगों के रसायन में
घुलमिल जाता
माप - माप कर
सहजवृत्त अमूर्तन की
अंतरदृष्टि
सविषयी तत्वों के
स्फुरण संग
शाकम्बरी का
चेतन स्पर्श हो जाता है
दीर्घकाल तक .
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