सोमवार, 20 जुलाई 2015

दृश्य कलाओं विशेषकर चित्र और शिल्प की विधा में काम करने वाले हम सभी कलाकारों के अपने-अपने अन्दाज-ऐ-बयां के तरीकों को लेकर अमूमन बहस हुआ करती है, जिसमें सही-गलत, प्रामाणिक-अप्रामाणिकता का मुद्दा अक्सर गरमाया रहता है, स्टाइल और फॉर्म के अभिन्न अंतर को लेकर आपसी चर्चाएं भी होती हैं, जहाँ हमेशा ही सम्बंधित विषय पर एक दूसरे के विचारों से असहमति बनी रहती है, जिसकी गति हमेशा ही अत्यंत सुन्दर होती आयी है, निश्चित तौर पर इस पूरे क्रम के माध्यम से कलाकार के मन में एक नयी रचना का जन्म होता है, आत्मविश्वास से भरे विचारों में पककर निकली रचना जिसका अपना एक मनो-भव है । 

नयी शब्दावरी

नयी शब्दावली
हते हैं जो सहता है वही रहता है, कलाकार के  जीवन में इस सहने के कई अर्थ होते हैं, जिससे गुज़र कर उसके विचार और उसकी कृति असल पकाव को पाते हैं, ये सहने का दौर अनंत तकलीफों के साथ-साथ बड़ा रोचक भी होता है, बारम्बार जहाँ खुद को गढ़ना और बिखेरना एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा हो जाता है और क्रमशः उसकी जिन्दगी का भी अंतरंग हिस्सा  आज पूरी दुनिया को यह दिखने लगा है कि विज्ञानं अपने अंतिम पड़ावों पर है, मानवीय सभ्यता उसकी संगति की सीमाओं को छू कर अपने मूल नैसर्गिक स्वरूप में लौटना चाहती है, जिसे अपने दामन में ठहराव लिए कलाओं के सहारे की ज़रूरत है,सच्चे  लेखक, कविकलाकारों की ज़रूरत है जो जीवन में फैले बेरुख़ी के बारूद को बे-असर करके कल्पना और यथार्थ के बीच साँस लेने की गुंजाईश पैदा करे उन अंतरालों को गढ़े जहाँ इस दौड़ती भागती दुनिया में कोई भी कुछ देर ठहर सकेअपने भीतर उठते उन स्वरों को सुन सके, अपने मन की कह सके जहाँ अधूरे में चाह हो पूरा होने की ताउम्र भटकता रहे वह रंगत पाने को,बिन जाने ही उस पूरे पर मुक़र्रर अधूरे को                                                                      
यकीनन एक लम्बे समय के बीत जाने के बावजूद दुर्भाग्य से हमारा समकालीन कला परिदृश्य अपनी भाषा में यथोचित शब्दकोष और विषय संबंधी सही-सही  परिभाषाओं से कोसों दूर है जबकि प्रायोगिक स्तर पर किया जा रहा कलाकर्म काफी आगे है,जिसमें फोटोग्राफी,सिनेमा से लेकर ग्राफ़िक,पेंटिंग,स्कल्पचर इत्यादि सम्मिलित हैं। तमाम तर्कों के बावज़ूद यहाँ कलाकार और कलमकार के बीच एक बड़ा फासला है, कला भाषा के व्याकरणों को जोड़कर उन्हें निरूपित करने वाले हिंदी भाषी कम ही लोग हैं, काफी हद तक सिनेमा और संगीत ने तो अपने जादू को बरकरार रखा है जहाँ समय-समय पर बहुत कुछ अच्छा लिखा जा रहा है इन कलाओं की कैफियत ने बहुत से उम्दा आलोचक पैदा किये हैं जिनकी बदौलत लहर- दर-लहर बहुत कुछ किनारे आकर ठहरा भी है जिसकी अनुगूँज समाज में साफ़ सुनाई पड़ती है, लेकिन ललित कलाओं के संदर्भ में तो हमारे हाल-बे-हाल हैं इक्के दुक्कों को छोड़कर यहाँ पूरा का पूरा सूपड़ा साफ़ है, हालाँकि बड़ी भारी संख्या में देश भर के विश्वविद्यालयों में ललित कला विषय के अंतर्गत कला इतिहास में भरकस शोध करवाये जाते रहें हैं, ये शोधार्थी जो महज़ गुदड़ी के लाल साबित हो रहे हैंजिसके लिए पूरी की पूरी विवस्था जिम्मेदार है। आज जरुरत है कला के विभिन्न पक्षों को एक खास तबके से बाहर निकाल कर आम लोगों तक पहुँचाने की, रचनाशीलता के प्रति जनसरोकार बढ़ाने की,विचारशीलता के स्तर एक समूचा कला आंदोलन खड़ा करने कीजिसके लिये हर एक विधा के कलाकार को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। संवाद के नए सहज अर्थ रचने होंगे, अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति को ओर ज्यादा संवेदनशील बनाकर नए समय की नयी शब्दावली के ताने बाने बुनने होंगे। 

अमित कल्ला  
जयपुर स्थित स्वतंत्र कविचित्रकार 

amitkallaartist@gmail.com