असमयी अंतरालों को पार करने की ललक
कल्पना और यथार्थ के बीच की यात्रा के सहचर होकर लगातार हम कितनी तेजी से आगे बढ़ते रहते है, जहाँ जिन्दगी की उपस्थिति के प्रमाणिक अंश कहीं पीछे छूटते नज़र आते हैं। जिन विषयों में कभी हमारी दिलचस्पी रहती थी, वे स्वयंसिद्ध अनुबंध आज समय के साथ बदले बदले - से लगते हैं; कुछ भी तो इक सार नहीं रहता यहाँ, उन असमयी अंतरालों को पार करने की ललक में मन ही मन कितना भुनभुनाते हैं, अन्ततोगत्वा थक हार कर सीख ही लेते अपने आपको बाँटना। निरर्थक नहीं है समय की इन सांकलों से मुक्त होना, कुछ ऐसा सोच पाना जिनसे वाकई हमारे असल सरोकार हों, हमारी देह और रूह से जिन तत्वों का ताल्लुक हो।
बहुत सार है यहाँ होने में, काफी हद तक निरर्थक साबित होता इस दुनिया को मृत्युलोक कहना, वास्तव में सबकुछ हम पर ही तो निर्भर है। मनुष्य का जन्म कोई अनायास घटित हुआ फलसफा नहीं ओर ना ही जीवविज्ञान का कोई वाकिया केवल, प्रयोजनार्थ भी है यहाँ बहुत कुछ , जिसे मन की आध्यात्मिक शब्दावरी के सहारे पाया जा सकता है। बार - बार हमें अपने इस लय के सूत्र सेतु को बनाये रखना होता है जिससे साक्षात् होना कोई नयी बात नहीं है, कालांतर से हम ऐसा ही तो करते आयें हैं, सार्थक करते आयें हैं अपने होने के अर्थ । बारम्बार जहाँ हमने जिन्दगी की इस जंग को जीता है, अनेकानेक तकलीफों के बावजूद भी मनुष्य होने की उत्सवधर्मिता को सिद्ध किया है। इसी देह में समय - समय पर अपने भीतर के ईश्वरीय तत्त्व की उदघोषणा की है हमने।
लेकिन कितने ही पहलुओं पर एक बहुत बड़े समूह द्वारा इस तथ्य को नाकारा भी जाता है पता नहीं हम किस नए संसार को रचने की बात करते हैं ...सिरे से नकार देते सह - अस्तित्व के उन नियमों को तभी तो शायद जिन्दगी अतार्किक, अरुचिकर और मूल्यहीन लगने लगती है, एक बड़ी आबादी के पास अनुभव व स्मृतियों के स्तर पर सब बाज़ारू सरीखा संचयन होता दिखाई देता है । आज पूरब का चिन्तनशील मनस पश्चिम के वैचारिक दिवालियापन की राह पर है, वैसे भी सबसे कठिन तो आपने आप को जानना होता है, अपने आप से संवाद करना और अपने भीतर देख पाना है जो स्वयं ही घटित होने वाली अध्यात्मिक प्रक्रिया का हिस्सा भर है, धर्म, राजनीति और बाज़ार तीनों ही हमें जिन अनुभवों से लगातार दूर रखना चाहते हैं बहुत दूर ।