हवा है
वह
छू ही
लेती है
भला कौन सा
घर
अछूता
कहाँ से लायेगा
एक लौटा पानी
जानते थे गौतम...
मृत्यु की उस
शाश्वत
बयार को
सोमवार, 12 अक्टूबर 2009
अकाम अवस्था में
चुपके से
खबर लेता
शुभ लक्षणों को देख
अपनी ही
आँखों का स्पर्श करता है
क्या
आसान होगा
अनंत काल तक
अजनबी धुरी के
सहारे चलना
सीधे-सीधे देखना
कहीं कुछ भी
अनैतिक नहीं
शब्दों के धोकों के साथ
पकडे जाने का डर
आखिर
विधियों के सहारे
कैसे जिया जा सकता
और
कैसे पाया जा सकता
उस अकाम अवस्था में
महानिर्वाण
खबर लेता
शुभ लक्षणों को देख
अपनी ही
आँखों का स्पर्श करता है
क्या
आसान होगा
अनंत काल तक
अजनबी धुरी के
सहारे चलना
सीधे-सीधे देखना
कहीं कुछ भी
अनैतिक नहीं
शब्दों के धोकों के साथ
पकडे जाने का डर
आखिर
विधियों के सहारे
कैसे जिया जा सकता
और
कैसे पाया जा सकता
उस अकाम अवस्था में
महानिर्वाण
रविवार, 11 अक्टूबर 2009
अदृश्य जल जानना चाहता
पूर्वजन्म की
स्मृतियाँ
लहर दर लहर
दस्तक
देतीं हैं
अदृश्य जल
जानना चाहता
उन का
मुकाम
यथासंभव
मेघ बनकर
बरसने की
भिगोने की
आकांक्षा है
उसकी
स्मृतियाँ
लहर दर लहर
दस्तक
देतीं हैं
अदृश्य जल
जानना चाहता
उन का
मुकाम
यथासंभव
मेघ बनकर
बरसने की
भिगोने की
आकांक्षा है
उसकी
लेबल:
अदृश्य जल जानना चाहता,
अमित कल्ला,
कविता
ए़क ही लय में
ए़क ही
लय में
बटोर-बटोरकर
अवाक्
उस सूने आँगन में
किसी बहेलिये सा
फैला देता हूँ
वही पुराना
जाल
हाँ
कितना
लय में
बटोर-बटोरकर
अवाक्
उस सूने आँगन में
किसी बहेलिये सा
फैला देता हूँ
वही पुराना
जाल
हाँ
कितना
सुहाता है
बिखरे खिलोनों में
अपना बचपन
खोजना
समय सहने का
समय
सोता नहीं
सुला देता है
गंगा में
बहाकर राख़
निकल जाता
बहुत दूर
फूंक से ढहाकर
देवताओं के
किलों को
समय
सहने का
कहकर
चला जाता है
सोता नहीं
सुला देता है
गंगा में
बहाकर राख़
निकल जाता
बहुत दूर
फूंक से ढहाकर
देवताओं के
किलों को
समय
सहने का
कहकर
चला जाता है
शनिवार, 10 अक्टूबर 2009
झर जाने से पहले
लौटना है
उसे
अपने घर
बहते समय के
लौट जाने से
पहले
चखनी
बारिश जो है
बादलों के
झर जाने से
पहले
सुनना है
वह देस राग
स्वरों के
मौन!
हो जाने से
पहले
क्या संभव ?
प्रत्यभिज्ञान की
परिभाषित
संगती
कहीं कुछ
होने जाने से
पहले
उसे
अपने घर
बहते समय के
लौट जाने से
पहले
चखनी
बारिश जो है
बादलों के
झर जाने से
पहले
सुनना है
वह देस राग
स्वरों के
मौन!
हो जाने से
पहले
क्या संभव ?
प्रत्यभिज्ञान की
परिभाषित
संगती
कहीं कुछ
होने जाने से
पहले
शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009
लिखना सिखलाते हैं
डूबो-डूबो कर
खाली पन्नों को
काली स्याही में
सपने
कुछ
लिखना
सिखलाते हैं
भाग-भाग कर
कितना थका था
खिसकती रेत में
धसक गए
पग मेरे
सपने
खडा करते हैं
थमा देते
महानिद्रा में
चमकीले
अक्षर बिम्ब
खाली पन्नों को
काली स्याही में
सपने
कुछ
लिखना
सिखलाते हैं
भाग-भाग कर
कितना थका था
खिसकती रेत में
धसक गए
पग मेरे
सपने
खडा करते हैं
थमा देते
महानिद्रा में
चमकीले
अक्षर बिम्ब
एक मृत्यु ईश्वर
एक
पत्ती
वृक्ष
एक
बूंद
सागर
एक
चिनगारी
आग
एक
सितारा
रात
एक
आकाश
अनंत
एक
शब्द
मौन!
एक
मृत्यु
ईश्वर
पत्ती
वृक्ष
एक
बूंद
सागर
एक
चिनगारी
आग
एक
सितारा
रात
एक
आकाश
अनंत
एक
शब्द
मौन!
एक
मृत्यु
ईश्वर
समय रहते
नीली
गहराई में
पानी
फूल सा खिलता है
पर्वतों के मोड़
सुन लेते
उसकी आवाज़
कभी-कभी
जगा देते
प्यासे को
समय रहते
गहराई में
पानी
फूल सा खिलता है
पर्वतों के मोड़
सुन लेते
उसकी आवाज़
कभी-कभी
जगा देते
प्यासे को
समय रहते
पृथ्वी
बादलों के
बीच से वह
पृथ्वी को देखता है
पृथ्वी
कितने ही सूर्य
वापस लौटाती
कह देती है
यहाँ
हर पर्वत में
इक
सूर्य रहता है
बीच से वह
पृथ्वी को देखता है
पृथ्वी
कितने ही सूर्य
वापस लौटाती
कह देती है
यहाँ
हर पर्वत में
इक
सूर्य रहता है
गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009
मेरी ही सुगंध बन
तत्त्वत:
अर्थ लिए
अर्थ लिए
असमाधेय
मूरत
ए़क-ए़क
शब्द
सार्थक करती है
सच कहूँ तो
सच कहूँ तो
रोक लेती
मुझे
मेरी ही सुगंध बन
किसी तितली सी
किसी तितली सी
नयी पाँखों पर
जा-जा कर
तार-तार
उस असंभव
उडान के
रंग गिनती है
उस असंभव
उडान के
रंग गिनती है
कोल्हू का बैल
चूक
जाता
हमशक्ल
उफ़
सूंघता
युग युग
पहाड़ी के भार तले
कोल्हू का बैल
सिर्फ
चकरी लगाता है
जानी पहचानी
आवाजाही में
तेज़ होता
वह शोर
क्या
कोई अंतर
उन फूस के
पुतलों में
मान बैठा है
जिसे वह
उपादेय रूप
ईश्वर का
जाता
हमशक्ल
उफ़
सूंघता
युग युग
पहाड़ी के भार तले
कोल्हू का बैल
सिर्फ
चकरी लगाता है
जानी पहचानी
आवाजाही में
तेज़ होता
वह शोर
क्या
कोई अंतर
उन फूस के
पुतलों में
मान बैठा है
जिसे वह
उपादेय रूप
ईश्वर का
कोकाबेली के फ़ूल 2
चाँद की
पैनी नोंक
तांकते
उभरते हैं
अपनी कायाओं से
थककर
फिर
इक बार
खिलने को
कोकाबेली के फ़ूल
पैनी नोंक
तांकते
उभरते हैं
अपनी कायाओं से
थककर
फिर
इक बार
खिलने को
कोकाबेली के फ़ूल
अपनी ही लय में
जोड़ती
संगत लहर सी
तीर
संगत लहर सी
अपनी ही लय में
निर्भय हो
धकेल देती
खड़ी दीवार को
मालूम पड़ता क्या कभी
हर रोज
पा - पाकर
अपने पग
नीचे उतरता है
वह चाँद
कभी पीर
कभी बैरागी
कभी आहें भर
दौड़ जाता
बचपन में
दीखता
पेड़ की तरह
उपस्थित
सचमुच
हाथों में लिए रंग
खडा रहता है
हर तट
तीर
पादुकाएँ
नीले घोडों की बागडोर
और
हरसिंगार की
प्रतीक्षा में
बुधवार, 7 अक्टूबर 2009
अदल-बदल कर अपनी बातें
गंध में
छिपा आवेग
आधे-अधूरों संग
रमण कर
चुपके-चुपके
परभाग
साबित होता है
भीतर - बाहर
शायद ही कोई
उस अदृश्य परिधि में
झांकना स्वीकार करता
परस्पर
अपने अपने
देव को बहला
अदल-बदल कर
अपनी बातें
कह- कहकर
किस्से-कहानी
असल विरासत के
अंदाजे लगा
चिपक जाता है
महामंत्र संग
अंतर्मन
आदिसर्ग
विकल्प का
गोपनीय सूत्र दे
कृतार्थ
समाधिस्थ फूलों को
पकता है
छिपा आवेग
आधे-अधूरों संग
रमण कर
चुपके-चुपके
परभाग
साबित होता है
भीतर - बाहर
शायद ही कोई
उस अदृश्य परिधि में
झांकना स्वीकार करता
परस्पर
अपने अपने
देव को बहला
अदल-बदल कर
अपनी बातें
कह- कहकर
किस्से-कहानी
असल विरासत के
अंदाजे लगा
चिपक जाता है
महामंत्र संग
अंतर्मन
आदिसर्ग
विकल्प का
गोपनीय सूत्र दे
कृतार्थ
समाधिस्थ फूलों को
पकता है
लेबल:
अदल - बदल कर अपनी बातें,
अमित कल्ला,
कविता
मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009
ओंठ छुईमुई के
दाँत
चमकीले दाँत
चबा डालते हैं
ओंठ
छुईमुई के
देखा आज
खुद
आँखों ने जिसे
बड़े पैमाने पर
बूंद - बूंद
झरते
चमकीले दाँत
चबा डालते हैं
ओंठ
छुईमुई के
देखा आज
खुद
आँखों ने जिसे
बड़े पैमाने पर
बूंद - बूंद
झरते
जैसे तैसे
रेंगता
समय
जान गया
फूंक फूंककर ही
सही
जैसे तैसे
कह दिया उसने
पहरेदारों को
क्या कहा ?
वृक्ष ने
सँजोकर
रखी ए़क
सुन्दर कहानी
वृक्ष ने
बांधी है
उसको ए़क
पतली डोर
स्वीकारा है
जिसने
उसे
प्रार्थना सा
डूबो लेता है
आज वही
उसे
लहर लहर
समय
जान गया
फूंक फूंककर ही
सही
जैसे तैसे
कह दिया उसने
पहरेदारों को
क्या कहा ?
वृक्ष ने
सँजोकर
रखी ए़क
सुन्दर कहानी
वृक्ष ने
बांधी है
उसको ए़क
पतली डोर
स्वीकारा है
जिसने
उसे
प्रार्थना सा
डूबो लेता है
आज वही
उसे
लहर लहर
कोकाबेली के फ़ूल 1
रात भर जागे
पानी के पंख
अपनी ही
शर्तों पर
डूब डूब कर
आहिस्ते से
सूरज को
कोकाबेली के फ़ूल
विरासत में सौंप देते हैं
हल से खींची रेखा
आकाश की बिंदिया
और
पर्वत की जड़
अपनी ही चादर
उलट पुलट कर
जैसे तैसे
आडी तिरछी
ध्वजाओं से
गाढे रंग के आगमन का
मार्ग सजाती है
कोई ऋषि
धुआँ भरे
कमंडल से
उनके खिलने के
दस्तखतों को
बहाकर
शब्द की
हवा देता है
पानी के पंख
अपनी ही
शर्तों पर
डूब डूब कर
आहिस्ते से
सूरज को
कोकाबेली के फ़ूल
विरासत में सौंप देते हैं
हल से खींची रेखा
आकाश की बिंदिया
और
पर्वत की जड़
अपनी ही चादर
उलट पुलट कर
जैसे तैसे
आडी तिरछी
ध्वजाओं से
गाढे रंग के आगमन का
मार्ग सजाती है
कोई ऋषि
धुआँ भरे
कमंडल से
उनके खिलने के
दस्तखतों को
बहाकर
शब्द की
हवा देता है
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