AMIT KALLA
रविवार, 11 अक्तूबर 2009
ए़क ही लय में
ए़क ही
लय में
बटोर-बटोरकर
अवाक्
उस सूने आँगन में
किसी बहेलिये सा
फैला देता हूँ
वही पुराना
जाल
हाँ
कितना
सुहाता है
बिखरे खिलोनों में
अपना बचपन
खोजना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
नई पोस्ट
पुरानी पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Agreegators
मेरे बारे में
Amit Kalla
मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें
फ़ॉलोअर
ब्लॉग आर्काइव
►
2017
(1)
►
मई
(1)
►
2016
(5)
►
मार्च
(2)
►
जनवरी
(3)
►
2015
(19)
►
दिसंबर
(1)
►
जुलाई
(3)
►
जून
(15)
►
2014
(15)
►
दिसंबर
(1)
►
सितंबर
(1)
►
जुलाई
(10)
►
जून
(2)
►
मार्च
(1)
►
2013
(9)
►
नवंबर
(7)
►
जनवरी
(2)
►
2012
(50)
►
दिसंबर
(6)
►
नवंबर
(13)
►
जुलाई
(2)
►
जून
(5)
►
मार्च
(10)
►
फ़रवरी
(13)
►
जनवरी
(1)
►
2011
(87)
►
सितंबर
(4)
►
अगस्त
(2)
►
जुलाई
(6)
►
जून
(15)
►
मई
(19)
►
अप्रैल
(18)
►
मार्च
(10)
►
फ़रवरी
(6)
►
जनवरी
(7)
►
2010
(4)
►
नवंबर
(4)
▼
2009
(126)
►
नवंबर
(4)
▼
अक्तूबर
(20)
जानते थे गौतम..
अकाम अवस्था में
अदृश्य जल जानना चाहता
टूटा पंख
ए़क ही लय में
समय सहने का
पहुँचना कहाँ
झर जाने से पहले
लिखना सिखलाते हैं
एक मृत्यु ईश्वर
समय रहते
पृथ्वी
मेरी ही सुगंध बन
कोल्हू का बैल
कोकाबेली के फ़ूल 2
अपनी ही लय में
अदल-बदल कर अपनी बातें
ओंठ छुईमुई के
जैसे तैसे
कोकाबेली के फ़ूल 1
►
सितंबर
(71)
►
अगस्त
(21)
►
जून
(1)
►
मई
(1)
►
अप्रैल
(8)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें