रात भर जागे
पानी के पंख
अपनी ही
शर्तों पर
डूब डूब कर
आहिस्ते से
सूरज को
कोकाबेली के फ़ूल
विरासत में सौंप देते हैं
हल से खींची रेखा
आकाश की बिंदिया
और
पर्वत की जड़
अपनी ही चादर
उलट पुलट कर
जैसे तैसे
आडी तिरछी
ध्वजाओं से
गाढे रंग के आगमन का
मार्ग सजाती है
कोई ऋषि
धुआँ भरे
कमंडल से
उनके खिलने के
दस्तखतों को
बहाकर
शब्द की
हवा देता है
मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009
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