शनिवार, 6 जून 2009

रेखाओं की देह विस्तृत होती हैअनन्य रहस्यों को खोलती - बांधती , जोड़ती - तोड़ती , कितना प्रभावित करती हैसमुद्र में लहर , धरती पर नदी , रेत , लम्बी यात्रा हो जातीस्मृतियां रचती - रचाती जीवन की धुरी हो गहराने लगती है , चित्रकार इन्ही रेखाओं को पकड़ रचता है विलय के अर्थ , जाग्रत कल्पनाओं को अपने गंतव्य तक पहुचाता है । आख़िर कहाँ से आती ये रेखायें ... कैसे निपजती , कहते हैं बिन्दु -बिन्दु जुड़ बनती है रेखा , रेखा बनाती है आकृतियाँ , और फिर पूर्ण होते प्रयोजन । सतत एकात्म का खेल चलता है , मूर्त - अमूर्त का एकात्म ।

कितनी सुंदर बात है की रेखाओं का जन्म भी रिक्तता से होता है । रिक्त जो पूर्णता का पर्याय , इसीलिए कभी कभी इन्हे रिक्त की रेखायें कहा जाता है जो अपनी पलकों में गहरी रात के काजल को सहेजकर ख़ुद ब ख़ुद सुर्ख सफ़ेद सतहों के बाहर झाँकती है । वैशाख की तपती दोपहर में पल - पल पके अमलतास के नन्हे निवेदनों को स्वीकार कर कितनी सहजता से उस ' रमते दृग ' के सामने फैला देती अपनी काली कमली ...कभी अनायास ही सुनहरे क्षितिज पर अधलेटी सुनती है गर्म हवाओं का यमनराग तो कभी पीपल के सूखे पत्तों को त्रिताल की संगत देती है । व्यक्त , अनभिव्यक्त के ताने - बानों के बीच खुलने बंधने का क्रम निरंतर जारी रहता है ,कोई उत्सवी परायण आते - आते अपनी ही देह में अंतरध्यान हो ,सुरमई लफ्जों की हामी भर तैलंगी औघड़ के जंतर की मैली डोरी हो जाती है ।

रिक्त की रेखायें करवट - करवट मौन के संतुलन के सहारे अचरज की अटकलों में डूबे पहाड़ पर कौंधती बिजलियों सी आ धमकती है ...बिन बोले ही काँच की बिसतों पर अक्षरों की बुनाई से छूटे अजनबी रेशों के संग अपनी ही सुधि जगा चमकदार फलसफों के पुलिंदों के बीच बहते पानी की उंगलियाँ थामे बूढी यात्राओं के रूखे पगों को नम करती है
। ठीक वैसे ही जैसे कोई स्वत्रन्त्र एकांत टूटी समाधी के पार राग आसावरी के संग विश्वसनीय लगता है / वैसे ही जैसे कोई सुनने सुनाने लगता ईश्वर की बात /वैसे ही जैसे शब्द रोशनाई में नहाकर सौ -सौ फल फलता /वैसे ही जैसे आँखों के सामने बाहर निकल , समुद्रविसर्जित मात्रायें संवाद के अर्थों के साथ अधिक मुखर हो जाती है ,मनमय आभासों के सहारे सब पार प्रकट हो अपने भूले हुए गंतव्य को अर्ध्य देती है ।

रिक्त की रेखायें अपने पंखों को बादलों की ओट में पसार ,मल - मल कर नागकेसर , किसी अन्य उडान को निकल जाती है ...धीरे से ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब।
    प्रकृति की छटा और संगीत की संगत। रेखाओं की गढ़न के तो क्या कहने ! थोड़ा नारी सौन्दर्य भी जड़ देते तो सोने में सुहागा हो जाता।

    बहुत बहुत शुभकामनाएँ।

    word verification रखा हो तो कृपया हटा दें। लगता है शुभेच्छा का भी प्रमाण माँगा जा रहा है।

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  2. हिंदी ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है....

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  3. आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . आशा है आप अपने विचारो से हिंदी जगत को बहुत आगे ले जायंगे
    लिखते रहिये
    चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है
    गार्गी

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