शनिवार, 12 सितंबर 2009

नहीं जानता

नहीं
जानता
कहाँ खोजाता
शायद
इक सपना ही

मन में
रह जाता
अबूझा सा सवाल
कभी- कभी
संभल-संभलकर
कुछ इस तरह कहता
अपनी बोली
अपना पानी
अपना लोक-परलोक

फिर क्या
अपने वक़्त के साथ
अपना रास्ता स्वीकार लेता
उलझा-उलझा आकार
पूरा का पूरा वृक्ष
या मुट्ठी भर अनाज,
अपने आप ही भर जाती
वो नन्ही सी धारा
हर आहट के साथ
मुक्त होता इक
पहाड़ी तोरण

क्या कहते
खीचता कोई
दामन ऋतुओं का
नहीं जानता
मैने तो सिर्फ
उगता हुआ
काला सूर्य देखा है

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