मंगलवार, 12 जून 2012

सागरमाथा

घूम - घूमकर
रचता है अपना समय
बंधता जो बरसाती धुनें भी
पूर्वजों की परम्पराओं को
भावों को  भाषाओँ  में भरकर
पृथ्वी की
कितनी ही यात्राएं करता है
इस बार यह तो
स्पस्ट है कि
साफ़ - सुथरा दिखाई देगा आसमान
इस बार
रंगों के धुंधलकों के पार
होगा अंतिम पर्व
धमक रहित
ऊपर उठती गहराई
ठीक सामने उसके
सागरमाथा है
इसबार  

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